SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 748 1 अध्यात्मसार में यशोविजयजी कहते हैं' का त्याग करना सरल है, देह के आभूषण का भी सकते हैं। कामभोगों का भी त्याग करना सरल है, किन्तु दंभ - सेवन (माया) अर्थात् जीवन में दोहरेपन का त्याग करना बहुत मुश्किल है । " - "रस के प्रति आसक्ति सरलता से त्याग कर माया के दुष्परिणाम 354 कुटिलता का अपर पर्याय माया है । मायाचारी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। मायावी के त्रियोग में एकरूपता नहीं होती। उसके भावों में मलिनता, वचनों में मधुरता, क्रिया में विश्वासघात होता है । वह छल-कपट द्वारा कार्यसिद्धि चाहता है । आज प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में माया का सेवन कर रहा है। विद्यार्थी छल-प्रपंच कर परीक्षा में पास होने का प्रयास करता है, व्यापारी माप-तौल में कपट करते हैं, वस्तु में मिलावट करते हैं, खराब वस्तु को अच्छी बताकर बेचते हैं । यह अनेक प्रकार के बहाने बनाना दायित्व से बचने का प्रयास है। ऐसे व्यक्ति सामने प्रशंसा करते हैं, पीछे निन्दा - आलोचना करते हैं और मुख में राम-बगल में छुरी' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। कई व्यक्ति धर्मस्थान में धार्मिक होने का ढोंग करते हैं, लेकिन बाकी समय छल-कपट करने में लगे रहते हैं । इस तरह, व्यक्ति के अन्तरहृदय में स्थित मायासंज्ञा का प्रसार सर्वत्र दिखाई देता है । सूत्रकृतांग में माया से होने वाले दुष्परिणामों का दिग्दर्शन कराया गया है । उसमें कहा गया है - जो माया - कषाय से युक्त है, वह भले ही नग्न (निर्वस्त्र) रहे, घोर तप से कृश होकर विचरण करे, एक-एक मास का लगातार उपवास करे, तो भी अनन्तकाल तक वह गर्भवास में आता है, अर्थात् उसका जन्म-मरण समाप्त नहीं होता । "74 ,,749 मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है- इस माया से वशीभूत हुआ जीव नानाविध कपट - वचन बोलता है, प्राणान्तक संभावना होने पर भी छल 748 सुत्यजं रसलाम्पट्यं सुत्यजं देहभूषणम् । त्या कामभोगाश्च दुस्त्यजं दंभसेवनम् ।। अध्यात्मसार, अध्याय-3, गाथा - 59 749 ....... इह माया मिज्जइ, आगंता गाय णंत सो ! - सूत्रकृतांगसूत्र, अ. 2, उ. 1. गाथा 9 Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy