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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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3. रोष
__ शीघ्र शान्त नहीं होने वाला क्रोध रोष है।611 रोष की अवस्था में व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव और क्रोधाभिव्यक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। इस अवस्था में आँखों की लालिमा से प्रकट होता है कि व्यक्ति क्रोध की अवस्था में है।
4. दोष
स्वयं पर या दूसरे पर दोष थोपना।12 कई व्यक्ति क्रोध की स्थिति में स्वयं पर दोष मढ़ते रहते हैं, जैसे - हाँ भाई, हम तो झूठ बोलते हैं, अथवा मैंने क्यों कहा? मुझे क्या पड़ी थी बीच में बोलने की?
5. अक्षमा
दूसरों के अपराध को सहन न करना अक्षमा है,813 या अपराध क्षमा नहीं करना अक्षमा है। इस स्थिति में इतनी असहिष्णुता होती है कि भूल पर तुरन्त दण्ड देने की प्रवृत्ति होती है, जैसे - बच्चे जूते-चप्पल बाहर न उतारकर मंदिर, घर तक ले आएं, तो तुरन्त थप्पड़ मारने वाले कई अभिभावक होते हैं, जबकि यह बात प्रेम से भी समझाई जा सकती है।
6. संज्वलन -
जलन या ईर्ष्या की भावना संज्वलन है। क्रोध से बार-बार आगबबूला होना, संज्वलन है। यहाँ 'संज्वलन' का अर्थ संज्वलन-कषाय से भिन्न है। कई लोग व्यतीत हो चुके क्षणों को, बीत चुके घटना-प्रसंगों को, किसी के बोले गए शब्दों को, बार-बार दोहराते रहते हैं और अपने को क्रोध से भरते रहते हैं।
611 भगवतीसूत्र, अभयदेवसूरि वृत्ति, श 12, उ. 5, सूत्र 2 612 वही,
613 वही. 614 वहीं
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