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________________ 300 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व क्रोध के विभिन्न रूप - समवायांगसूत्र 606 एवं भगवतीसूत्र :07 में क्रोध के दस रूप या समानार्थक नाम प्राप्त होते हैं - 1. क्रोध, 2. कोप, 3. रोष, 4. दोष, 5. अक्षमा, 6. संज्वलन, 7. कलह, 8. चाणिक्य, 9. मंडन, 10. विवाद। कसायपाहुड 608 में भी क्रोध के दस रूपों का वर्णन है, जिसमें 'चाण्डिक्य' एवं 'मंडन' के स्थान पर 'वृद्धि' एवं 'झंझा' शब्द उपलब्ध होते ____ 1. क्रोध – आवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था क्रोध है। 2. कोप - क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता कोप है। संस्कृत में 'कुप्' धातु से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय जुड़कर 'कोप' शब्द की सिद्धि होती है। अभिधानराजेन्द्रकोश में कोप को कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति बताया गया है। 609 यह चित्तवृत्ति प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। 'साहित्यदर्पण' के अनुसार, प्रेम की कुटिल गति से जो अकारण क्रुद्ध स्थिति होती है, वह कोप है। 'भगवतीवृत्ति के अनुवादक के अनुसार, क्रोध के उदय को अधिक अभिव्यक्त न करना कोप है।10 सामान्यतः देखने में आता है कि कई व्यक्ति क्रोध आने पर वाचिक-प्रतिक्रिया नहीं करते हैं; पर चेहरे की स्तब्धता उनकी असामान्य स्थिति का बोध करा देती है, इसलिए बोलचाल की भाषा में कहते हैं - क्यों मुँह फुला रखा है ? मुँह क्यों चढ़ा रखा है ? 606 तं जहा कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे – समवायांगसूत्र- 52/1 607 भगवतीसूत्र, श. 12, उ 5, सूत्र 2 06 कसायपाहुड चू., अ 9, गाथा 86 का अनुवाद 609 अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग 7, पृ. 106 1° भगवतीसूत्र, अभयदेवसूरि वृत्ति, श. 12, उ 5, सूत्र 2 608 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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