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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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क्रोध से संबंधित विवेचना और स्वरूप को बौद्धदर्शन में विस्तार से बताया गया है। इतिवुत्तक में महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है –“जिस क्रोध से क्रोधी दुर्गति को प्राप्त होता है, योगी उस क्रोध को छोड़ देते हैं, अतः वे फिर कभी इस संसार में नहीं आते, इसलिए क्रोध को जड़ से उखाड़कर फेंक देना चाहिए।"568 अंगुत्तरनिकाय में क्रोधी मनुष्य की उपमा सर्प से की गई है।569 संयुत्तनिकाय70 में दो-तीन ऐसे प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनमें तथागत को क्रोध करने का निमित्त प्राप्त हुआ, किन्तु उन्होंने क्रोध नहीं किया। भारद्वाज-गोत्रीय व्यक्ति क्रुद्ध होकर तथागत के पास आया और प्रश्न किया -
"किसका नाश कर व्यक्ति सुख से सोता है ?" “किसका नाश कर शोक नहीं करता है ?" "किस एक धर्म का वध करना - हे गौतम! आपको रुचता है ?" तथागत बुद्ध ने प्रत्युत्तर दिया -
“क्रोध का नाश कर सुख से सोना, क्रोध का नाश कर शोकमुक्त होना, दुःख के मूल क्रोध का वध करना, हे ब्राह्मण ! मुझे बड़ा अच्छा लगता है।
इसी प्रकार, एक क्रुद्ध व्यक्ति बुद्ध को कोसता हुआ गालियाँ देते जा रहा था। गालियाँ देने पर भी वे शान्त बने रहे और उस व्यक्ति को कहा – “भद्र! तुम किसी के पास कोई वस्तु ले जाओ, यदि वह व्यक्ति उस वस्तु को स्वीकार न करे, तो वह वस्तु किसकी रहेगी?” उस क्रुद्ध व्यक्ति ने झुंझलाकर कहा; -"वह तो मेरे पास ही रहेगी। महात्मा बुद्ध ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया –“भद्र ! तुम्हारे द्वारा दी जाने वाली गालियाँ मैं स्वीकार नहीं करता हूँ, अतः वे तुम्हारे पास ही रहेंगी। कहते हैं - शाप (आक्रोश-गाली) देने वाले के पास ही वापस लौट जाता है। बुद्ध ही नहीं, समस्त महापुरुषों ने क्षमा, समता, सहिष्णुता को अक्रोध की स्थिति कहा है। भगवान् महावीर ने साधना-काल में संगम के द्वारा दिए गए उपसर्गों, गोपालक द्वारा कानों में कीलें डालने जैसे भयंकर कष्टों और अन्य अनेक कठोर परीषहों को भी समता एवं शान्त-भाव से सहन किया। कभी भी
568 इतिवृत्तकं, पहला निपात, पहला वर्ग, पृ.2 569 अंगुत्तरनिकाय, द्वितीय भाग, पृ. 108-109 570 संयुतनिकाय, पहला भाग, अनु. भिक्षु जगदीश काश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित, संयुत 7, पृ. 129
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