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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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पूंजीवादी-विचार उत्पादन के व्यक्तिगत स्वामित्व का समर्थन करता है, वहीं समाजवादी विचार उत्पादन और वितरण के कार्यों को राज्य के हाथों में सौंपता है। ऐसी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वाभाविक उत्पादन की प्रेरणा समाप्त हो जाती है तथा वह अपनी सारी स्वतंत्रता खोकर यंत्रवत् जीवन व्यतीत करता है। इन दोनों से भिन्न एक तीसरे प्रकार का दृष्टिकोण भी है, जिसमें आर्थिक-जीवन को तिरस्कृत कर आध्यात्मवादी-जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा है। वास्तव में यह पलायनवादी-विचार है, जिसका आधार संन्यासवाद ही है।
ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में गांधीजी ने ऊपर के तीनों सिद्धान्तों की बुराइयों का परित्याग कर उनकी अच्छाइयों को ग्रहण किया है। गाँधीवाद में अपरिग्रह का व्रत 'ट्रस्टीशिप' (न्यास-सिद्धान्त के रूप में विकसित हुआ, जिसका अर्थ है, अपनी जरूरत की चीजों को रखने में भी स्वामित्वभाव नहीं रहना चाहिए। मनुष्य अपनी जरूरत की चीजें तो रखे, लेकिन उस पर अपना स्वामित्व नहीं माने।15 गांधीजी के अनुसार, संसार की सभी वस्तुओं का वास्तविक मालिक ईश्वर है।516 उसने विश्व का सृजन किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं किया, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए किया है। वह सर्वशक्तिमान् होते हुए भी संग्रह नहीं करता है। मनुष्य उसी ईश्वर का एक छोटा-सा रूप है, अतः उसे भी उत्पादन समाज-हित की भावना से करना चाहिए, स्वार्थ की भावना से नहीं। ईश्वर की भांति ही उसे भी भविष्य के लिए संग्रह नहीं करना चाहिए। अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद जो धन बच जाए, उसे अपना नहीं मानकर समाज का मानना चाहिए तथा उस संपत्ति का सदुपयोग समाजहित और राज्यहित में करना चाहिए। यदि इस प्रकार का विचार समाज में रूढ़ हो जाए, तो गांधीजी का यह दृढ़ विश्वास है कि समाज में आर्थिक विषमता मिटकर रहेगी।
ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में आर्थिक-विषमता मिटाने का प्रयत्न बलपूर्वक हिंसा के आधार पर नहीं, विचार–परिवर्तन और हृदय-परिवर्तन
515 सर्वोदय दर्शन, पृ 281-82 516 Harijan, 23/2/47. P. 39 517 Ibid, P.39 518 Young India, PP. 368-69
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