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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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- ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए वेद, उपनिषद् और बौद्ध-साहित्य में कुछ नियम और उपनियमों का उल्लेख अवश्य हुआ है, उदाहरणार्थस्मरण, क्रीड़ा, अवलोकन आदि का निषेध किया गया है,37 परन्तु जिस तरह से जैन-साहित्य में इसका क्रमबद्ध उल्लेख प्राप्त होता है, वैसा वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। यह एक ज्वलन्त सत्य है कि काम पर विजय प्राप्त करना सरल नहीं है। उसके लिए निशीथचूर्णि में एक मनोवैज्ञानिक रूपक प्रस्तुत किया है- एक बाला, जो सारे दिन निठल्ली बैठी रहती थी और अपने रूप को सजाती-संवारती रहती थी, उसे तीव्र वासनाएं सताने लगी, तब समझदार वृद्धा ने उसको सम्पूर्ण घर का भार सौंप दिया, जिससे वह उस काम में इतनी तल्लीन हो गई कि कामवासना को भूल गई। वह रात्रि में इतनी थकी रहती थी कि लेटते ही उसे गहरी नींद आ जाती थी। वैसे ही, श्रमण-श्रमणियों को भी दिन-रात स्वाध्याय और ध्यान में लगे रहना चाहिए, जिससे काम-वासनाएं उबुद्ध ही न हों। काम-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने का यह सरलतम उपाय है।78
वस्तुतः, ब्रह्मचर्य कामवासना के निरसन के लिए मेरुदण्ड के समान है, इसके अभाव में साधक आध्यात्मिक-साधना नहीं कर सकता, इसलिए श्रमणों के लिए नैष्ठिक-ब्रह्मचर्य-महाव्रत के पालन करने और श्रमणोपासक (गृहस्थों) के लिए स्वदारसंतोष-अणुव्रत का पालन करने को कहा गया है, अतः दोनों के आध्यात्मिक- विकास के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।
वासना-जय की प्रक्रिया और ब्रह्मचर्य की साधना
'सत्यं-शिव-सुन्दरम्'- ये जीवन के तीन आदर्श हैं। जीवन केवल सत्य ही नहीं, उसमें सुन्दरता भी चाहिए और शिवत्व तक पहुंचने के लिए साधना भी। प्रस्तुत संदर्भ में सत्य से तात्पर्य संसार है। शिवम् का अर्थ ब्रह्मचर्य की साधना और सुन्दरम् का अर्थ आदर्श जीवन (वासनाजय की प्रक्रिया) से है। जिस जीवन में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् -ये तीन आदर्श नहीं, वह जीवन वास्तविक जीवन नहीं हो सकता है, क्योंकि अनादिकाल से यह जीव अपनी मूलप्रवृत्तियों के कारण एक भव से दूसरे भव, एक योनि से दूसरी योनि और एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त कर रहा है।
377 दक्षस्मृति - 7/32 378 निशीथभाष्य चूर्णि, गाथा-574
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