SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 210 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अधिक भोजन नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निर्ग्रन्थ है।75 ब्रह्मचर्य की इन पाँच भावनाओं के सतत चिन्तन व मनन से मन ब्रह्मचर्य में स्थिर होता है, सुसंस्कार सुदृढ़ होते हैं और साधक ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले घटकों से बचता है। जिस प्रकार अनाज उत्पन्न करने वाले खेत की सुरक्षा के लिए काँटों की बाड़ लगाई जाती है, आम के फल से लदे वृक्षों की सुरक्षा के लिए तारों की बाड़ बनाई जाती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य-व्रत की सुरक्षा के लिए शास्त्र में नौ बाड़ों का विधान किया गया है, जो निम्न हैं - स्थानांगसूत्र के अनुसार - 1. विविक्त शयनासन - ब्रह्मचारी ऐसे स्थान पर शयन-आसन करे, जो स्त्री, पशु, नपुंसक से संसक्त न हो। 2. स्त्री-कथा-परिहार - स्त्रियों की सौन्दर्य-वार्ता, कथा-वार्ता आदि की चर्चा न करे। 3. निषद्यानुपवेशन - स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे। उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस आसन पर न बैठे। 4. स्त्री-अंगोपांग-अदर्शन - स्त्रियों के मनोहर अंग-उपांग न देखे, यदि कदाचित् उस पर दृष्टि चली जाए, तो पुनः हटा ले, फिर उसका ध्यान न करे । 5. कुड्यान्तर शब्द श्रवणादिवर्जन - दीवार आदि की आड़ से स्त्रियों के शब्द, गीत आदि न सुने। 6. पूर्वमोग स्मरण-वर्जन - पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। 7. प्रणीत भोजन त्याग – विकारोत्पादक गरिष्ठ भोजन न करे। 8. अतिमात्रा भोजन-त्याग - रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में न किया जाए। 9. विभूषाविवर्जन – शरीर की सजावट न करे। 375 नाइमत्त्पाणाभोयणाभोई से निग्गथे - आचारांगसूत्र - 2/3/15/14 376 स्थानांगसूत्र - 9/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy