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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
योनि में एक साथ नौ लाख जीव उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु उनमें से परिपक्व अवस्था को प्राप्त करने वाले कम ही होते हैं,358 अतः शेष सभी जीवाणु समाप्त हो जाते हैं, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह, अब्रह्मचर्य के द्वारा बहुत बड़ी हिंसा होती है। श्री हेमचन्द्राचार्यरचित योगशास्त्र में कहा है – 'योनिरूपी यंत्र में अनेक सूक्ष्मतर जन्तु उत्पन्न होते हैं। मैथुन-सेवन करने से वे जन्तु मर जाते हैं, इसलिए मैथुन-सेवन का त्याग करना चाहिए। इस तरह, अब्रह्मचर्य के द्वारा बहुत बड़ी हिंसा होती है। संभवतः, इसी दृष्टि से ब्रह्मचर्य की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए एक आचार्य ने कल्पना की है कि तराजू के एक पलड़े में चारों वेद रखे जाएं और दूसरे पलड़े में ब्रह्मचर्य व्रत रखा जाए, तो ब्रह्मचर्य का पलड़ा भारी हो जाता है।360 अब्रह्म-सेवन में हिंसा तो मुख्य रूप से होती ही है, किन्तु अन्य पाप भी होते हैं। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं कि अहिंसा आदि गुण जिसके पालन से सुरक्षित रहते हैं, या बढ़ते हैं, वह ब्रह्म है और जिसके होने से अहिंसा आदि गुण सुरक्षित नहीं रहते, वह अब्रह्म है। अब्रह्म के सेवन से प्राणी चर और अचर -सभी की हिंसा करता है। वह झूठ बोलता है, वह बिना दी हुई वस्तु भी ग्रहण करता है। इस प्रकार, ब्रह्मचर्य के व्रत-भंग होने पर अन्य सभी व्रत भंग हो जाते हैं। जैसे पर्वत से गिरने पर वस्तु के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, वैसी ही स्थिति व्रतों की होती है।362
महात्मा गांधी ने भी कहा है 363 -"पाँच मुख्य व्रत मेरी आध्यात्मिक-साधना के पाँच स्तम्भ हैं। ब्रह्मचर्य उनमें से एक है। पाँचों अविभक्त और सम्बद्ध हैं। वे एक- दूसरे से सम्बन्धित और एक-दूसरे पर आधारित हैं। यदि उनमें से एक का भंग होता है, तो सबका भंग हो जाता है।"
358 भगवई, वृ.- 2/87 359 योनियंत्रसमुत्पन्ना सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । ___ पीडयमान विपद्यन्ते यत्र तन्मैथुनं त्यजेत् ।। - योगशास्त्र - 2/79
एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य च एकतः - अणु से पूर्ण की यात्रा, पृ. 331 तत्त्वार्थराजवार्त्तिक - 9, 6-23 प्रश्नव्याकरणसूत्र - 2/4 महात्मा गांधी - दि लास्ट फेस, पृ. 585
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