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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 15 प.पू. विनीतयशाश्रीजी म.सा., प्रियवंदाश्रीजी म.सा., अमितयशाश्रीजी म.सा., श्रद्धांजनाश्रीजी म.सा., शीलांजनाश्रीजी म.सा., दीपमालाश्रीजी म.सा., दीपशिखाश्रीजी म.सा., प्रशमिताजी, अर्हनिधिजी, धर्मनिधिजी, जयप्रियाजी एवं कल्याणमालाजी का अविस्मरणीय सहयोग मेरी श्रुतसाधना का प्राण है। प्रतिभामूर्ति प.पू. शुद्धांजनाश्रीजी म.सा., कर्मठ एवं सेवाभावी सदाप्रसन्ना योगांजनाश्रीजी म.सा. एवं अध्ययनरता संवेगप्रियाश्रीजी का सहयोग तो कृति के साथ सदा जुड़ा ही रहेगा, जिन्होंने मेरे अध्ययन को प्रमुखता दी, जिनकी स्नेहिल सद्भावमय सन्निधि में यह कार्य संपन्न हुआ। उनकी निर्मल सेवाएं कदम-कदम पर स्मरणीय रही हैं। इनका मेटर कलेक्शन, प्रूफरीडिंग में पूर्ण सहयोग रहा है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी आत्मीयता का अवमूल्यन नहीं करूंगी, बस इन सभी के स्नेह सहयोग से मेरी संयम यात्रा, ज्ञानयात्रा और साधना-यात्रा सतत गतिमान् रहे, यही चाहूंगी। इसी प्रसंग पर मुनिप्रवर श्री महेन्द्रसागरजी म.सा., मनीषसागरजी म.सा. आदि सन्तों एवं साध्वी प्रियश्रद्धांजनाश्रीजी एवं प्रियश्रेष्ठांजनाश्रीजी का सहयोग एवं मार्गदर्शन सदैव स्मरणीय रहेगा। इस कार्य का परम एवं चरम श्रेय प्रज्ञाप्रोज्ज्वल भास्वर व्यक्तित्व के धनी, जैन धर्मदर्शन के मूर्द्धन्य विद्वान, आगम मर्मज्ञ, भारतीय संस्कृति के पुरोधा डॉ. सागरमलजी जैन को है, जिन्होंने इस शोधप्रबन्ध को प.पू. गुरूवर्याश्री के सपने के अनुरूप साकार करने में पूर्णरूपेण सहयोग दिया और विषयवस्तु को अधिकाधिक प्रासंगिक, उपादेय बनाने हेतु सूक्ष्मता से देखा, परखा और आवश्यक संशोधनों के साथ मार्गदर्शन प्रदान किया। यद्यपि वे नाम-स्पृहा से पूर्णतः विरत हैं, तथापि इस कृति के प्रणयन के मूल आधार होने से इसके साथ उनका नाम सदा- सदा के लिए स्वतः जुड़ गया है। वे मेरे शोध-प्रबन्ध के दिशा-निर्देशक ही नहीं हैं, वरन् मेरे आत्मविश्वास के प्रतिष्ठाता भी हैं। उनका दिशानिर्देशन ही इस शोधकार्य का सौंदर्य है। उनका वात्सल्यभाव एवं असीम आत्मीयता मेरे जीवन का गौरव है, जो आजीवन बना रहे, यही गुरूदेव से प्रार्थना है..... संस्कृतभाषा एवं न्याय के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ. बलराम गुरूजी (नेपाल), जिन्होंने मुझे संस्कृत और न्याय की शिक्षा दी और उन सभी गुरुजन एवं शिक्षकगणों को, जिन्होंने मुझे ज्ञानार्जन हेतु हमेशा प्रेरित और प्रोत्साहित किया, उन सबके प्रति भी अपना आभार प्रकट करती हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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