________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
191
उसका अभाव नहीं होता। वह दोगुने वेग से पुनः उभरती है। प्रारम्भिक दशा में श्रावक में इतनी सामर्थ्य नहीं होती है कि वह ब्रह्मचर्य-महाव्रत का पालन कर सके, अत: उसके लिए स्वपत्नी-संतोषव्रत बताया गया है। दम्पत्ति एक-दूसरे से सन्तुष्ट और प्रसन्न रहें, दाम्पत्य की मर्यादा के बाहर आकर्षण का अनुभव न करें। पुरुष के लिए एक ही पत्नी और स्त्री के लिए एक ही पति की मर्यादा हर प्रकार से उचित, न्यायसंगत और निरापद सिद्ध हुई है। गृहस्थों के लिए यही 'ब्रह्मचर्य-अणुव्रत' है।
कामवासनाओं का दमन और निरसन, ब्रह्मचर्य के माध्यम से -
लालटेन की लौ से प्रकाश होता है, परन्तु काँच की हण्डी यदि धुएँ से काली हो चुकी हो, तो लौ को आप कितनी भी तेज कर दें, उससे वस्तुएँ साफ-साफ नहीं दिखाई देती। इसी प्रकार, आत्मा में ज्ञान की लौ है, अनन्त प्रकाश है, परन्तु मन पर विषय-वासनाओं के धुएँ रूपी आवरण हो, तो सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। मन की निर्मलता के लिए तन, की, शरीर की निर्मलता/स्वस्थता अत्यावश्यक है। किसी अंग्रेजी चिन्तक ने ठीक ही कहा है - "Sound mind lives in sound body" सबल शरीर में ही सबल मन रहता है। सुख के सैकड़ों साधन हों, किन्तु यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो उन साधनों का कोई मूल्य नहीं, कोई आनन्द नहीं। जीवन का सच्चा सुख, सच्चा आनन्द स्वस्थता है, अर्थात् 'स्व' में अवस्थिति है। यह तभी सम्भव है, जब विषयों की ओर नहीं भागें। तन की स्वस्थता का आधार भी इन्द्रियों का संयम, ब्रह्मचर्य एवं सदाचार का पालन ही है। ब्रह्मचर्य ही तन और मन की स्वस्थता का आधार है। महापुरुषों ने कहा है
ब्रह्मचर्य जीवन है, वासना मृत्यु है। ब्रह्मचर्य अमृत है, वासना विष है। ब्रह्मचर्य अनन्त शान्ति है, वासना अशान्ति है। ब्रह्मचर्य शुद्ध ज्योति है, वासना घना अन्धकार है।
यह विचारणीय है कि शील क्या है ? ब्रह्मचर्य क्या है ? इनसे शारीरिक और मानसिक-स्वस्थता का क्या सम्बन्ध है ?
322 उपासकदशांग - 1/44
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org