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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 189 जाती है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में भी दमन में वासना Id} और नैतिक मन {super ego} में संघर्ष चलता रहता है, लेकिन क्षय में यह संघर्ष नहीं होता है, वहाँ तो वासना जगती ही नहीं है। दमन और निरसन को स्पष्ट करने के लिए उदाहरणतः, जैसे- पानी गंदा है और उसमें फिटकरी डालकर पानी के मैल को उपशमित किया जाता है, लेकिन इस पानी को हिलाने पर पुनः पानी गंदा दिखाई देता है, परन्तु जब पानी को फिल्टर में डालकर साफ किया जाता है, तो फिर पानी गंदा होने की संभावना ही नहीं रहती है, जिस प्रकार पानी की गंदगी फिल्टर द्वारा पूर्ण रूप से साफ हो गई, तो फिर गंदा होने की संभावना ही समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार वासना के क्षय से पुनः वासना उत्पन्न होने की संभावना ही नहीं रहती है। दशवैकालिकसूत्र15 में कहा है - स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, हावभाव, सौन्दर्य, चालढाल, अंगचेष्टा आदि को गौर से देखने से कामराग की वृद्धि होती है तथा दमित कामवासना पुनः जाग्रत हो जाती है। सामान्यतः, दमन शब्द का प्रयोग बलपूर्वक होने वाले निरोध के अर्थ में किया जाता है। संस्कृत-हिन्दी-कोश में इस शब्द के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ निम्न हैं – दबाना, नियन्त्रित करना, निरावेश, शान्त, आत्मसंयम, वश में करना, जीतना। 16 जहाँ तक निरसन शब्द के अर्थ का प्रश्न है, उसका प्रचलित अर्थ निकालना एवं दूर करना है, किन्तु संस्कृत-हिन्दी-कोश के अनुसार इसके निम्न अनेक अर्थ हैं – निकालना, प्रक्षेपन, हटाना, दूर करना, उद्वमन, उन्मूलन, निष्कासन, रोकना, दबाना विनाश आदि। जैनसाधना-पद्धति तो समत्व (समभाव) की साधना है।318 वासनाओं के दमन का मार्ग तो चित्तक्षोभ उत्पन्न करता है, अतः वह उसे स्वीकार्य नहीं है। जैनसाधना का आदर्श क्षायिक-साधना है, जिसमें वासना का दमन नहीं, वरन् वासना-क्षय ही साधक का लक्ष्य है। वासनाओं का क्षय कैसे किया जाए ? इस संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं कि मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए, क्योंकि बलात् रोकने से वह ल 315 दशवैकालिकसूत्र - 8/57 316 संस्कृतहिन्दी कोश, पृ. 488 317 संस्कृतहिन्दी कोश, पृ. 535 उत्तराध्ययनसूत्र - 23/58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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