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________________ 188 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व संसार का मूल कारण मानता है। यह कषाय मोहनीय-कर्म का बीजतत्त्व है। इस दृष्टि से दोनों में समानता दिखाई देती है। अचेतन मन के साथ सूक्ष्म-शरीररूप कर्म और संस्कार जुड़े हुए हैं। यही संस्कार अनुवांशिकता और जीन्स के सिद्धान्तों को समझने में सहयोगी बनते हैं। जैनदर्शन में राग-द्वेष भावों का जन्म इसी कर्म-चेतना (अचेतन मन) से ही होता है। आचारांगसूत्र में 'अणेगचित्त खलु अयं पुरिसे', अर्थात् वासनाओं के कारण यह चित्त अनेक भागों में विभाजित हो जाता है। यह कथन चित्त की यथार्थता को अभिव्यक्त करता है, जो मनोविज्ञान का प्रस्थापक बिन्दु है। यही चित्त कर्मचेतना को उत्पन्न करता है। उसमें कुछ प्रशस्त होती हैं और कुछ अप्रशस्त। चेतन मन को विवेक के कारण वासनाओं से संघर्ष करना पड़ता है। कभी इन इच्छाओं का, कामवृत्ति का निरसन भी किया जाता है और कभी विवेक के माध्यम से पुनः अचेतन मन में भेज दिया जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनदर्शन की मैथन-संज्ञा और फ्रायड की काम-संज्ञा अर्थात् लिबिडो व्यावहारिक रूप से समान हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिक फ्रायड यह कहता है कि कामवासना का दमन या मनोनिग्रह मानसिक स्वास्थ्य के लिए. अहितकर है। यही नहीं, इच्छाओं और वासनाओं के दमन में जितनी अधिक तीव्रता होती है, वे दमित वासनाएँ उतने ही वेग से विकृत रूप में प्रकट होकर केवल अपनी ही पूर्ति का प्रयास ही नहीं करती हैं, वरन् मनुष्य के व्यक्तित्व को भी विकृत बना देती हैं, परंतु जैनधर्म ब्रह्मचर्य की आराधना के द्वारा मैथुनसंज्ञा/कामवासना को दमित करने और मुक्ति को प्राप्त करने के मार्ग को प्रशस्त करता है। कामवासना के दमन एवं निरसन के सम्बन्ध में जैन-दृष्टिकोण – जैन-दृष्टिकोण कामवासना के दमन के सम्बन्ध में यह कहता है कि विकास का सच्चा मार्ग वासनाओं का उपशम या दमन नहीं है, उनका निरसन या क्षय करना है, क्योंकि दमित चित्त में वासना की सत्ता बनी रहती है। वासना को जितना दबाया जाता है, वह उतनी ही तेजी से विस्फोटित होती है, जबकि क्षय में वासना धीरे-धीरे कम होकर समाप्त हो 314 आचारांगसूत्र- 3/1/42 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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