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________________ 186 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जैनदर्शन यह मानता है कि Id (इड) वासनात्मक अहं है, अतः अव्यक्त रूप से रहे हुए इन काम-संस्कारों का निरसन आवश्यक है । यद्यपि, यहाँ फ्रायड और जैनदर्शन में मतभेद हैं । जैनदर्शन मैथुन - संज्ञा या काम - संस्कारों के पूर्णतः निरसन की संभावना को स्वीकार करता है, जबकि फ्रायड ऐसा नहीं मानता, फिर भी दोनों इस बात में एकमत हैं कि इन संस्कारों के दमन से चित्तशुद्धि संभव नहीं है। जैनदर्शन में दमन को उपशम के रूप में और निरसन को क्षय के रूप में बताया गया है। जैनदर्शन का कहना है कि दमित वासनाएँ साधना के उच्च स्तर पर स्थित व्यक्ति को भी नीचे गिरा देती हैं । जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें, तो उपशम - मार्ग का साधक आध्यात्मिक पूर्णता के चौदह गुणस्थानों में से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुंचकर वहाँ से गिरता है और पुनः प्रथम मिथ्यात्व - गुणस्थान तक आ सकता है। 309 यह तथ्य जैनसाधना में दमन के . अनौचित्य को स्पष्ट करता है। कामतत्त्व के मूल में रागवृत्ति रहती है । यही रागवृत्ति फ्रायड के दर्शन में 'लिबिडो' के अर्थ में मानी गई है । 'राग' तत्त्व के कारण ही व्यक्ति 'पर' से जुड़ता है और 'पर' के जुड़ाव की यह वृत्ति ही आध्यात्म के क्षेत्र में कामवृत्ति या मैथुनसंज्ञा कही गई है। जैनदर्शन कामवासना से मुक्त होकर वीतरागता की बात करता है, जबकि फ्रायड भी अपने मनोविश्लेषण के सिद्धान्त 10 {Psychoanalytic theory} के अनुसार इस बात का समर्थन करता है कि वासना का दमन न करके उसका निरसन कर हम वासनाओं से मुक्त हो सकते हैं। मनोविश्लेषण मन के प्रति सतत जागरूकता के बिना संभव नहीं । मन या चेतन की सतत जागरूकता ही जैनदर्शन में आध्यात्मिक - विकास का आधार मानी गई है। फ्रायड और जैनदर्शन दोनों ही यह मानते हैं कि दमित वासना या कर्म - संस्कार कभी भी हमारी विमुक्ति के साधन नहीं बन सकते हैं। फ्रायड के अनुसार, अचेतन मन ही वासनाओं का भण्डार है और उन वासनाओं को दमित स्तर पर नहीं, पर चैतसिक-स्तर पर लाकर उनकी निरर्थकता का बोध करते हुए हमारी चेतना से बहिष्कृत किया जा सकता 309 देखिए- गुणस्थानारोहण 310 मनोविश्लेषणात्मक - सिद्धान्त मानव - प्रकृति या स्वभाव (Human Nature } के बारे में कुछ मूल पूर्वकल्पनाओं (basic assumptions) पर आधारित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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