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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
दुर्घटना में स्वर्गवास हो जाना तथा स्वयं का भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाना आदि, फिर भी आपने अपना मनोबल बनाए रखा और अन्तत: चार वर्ष के अन्तराल के बाद भी पदयात्रा करके शाजापुर आकर अपना और अपनी गुरुणी (बुआजी म.सा.) का स्वप्न साकार किया। लगभग १८ माह के अल्पकाल में यह शोध-प्रबन्ध तैयार करके पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध आपकी प्रबुद्धता और परिश्रम का परिचायक है । जहाँ एक ओर मेरी उनसे यह अपेक्षा है कि वे जैन-विद्या के क्षेत्र में इसी प्रकार परिश्रम करते हुए अपनी प्रबुद्धता से जन-जन का मार्ग आलोकित करती रहें, साथ ही मैं प्रबुद्ध पाठक वर्ग से भी यह अपेक्षा रखूगा कि साध्वीजी के परिश्रम को सार्थक करते हुए यथार्थ और आदर्श के मध्य सम्यक समायोजन करते हुए वे भी अपने मानव-जीवन को सफल बनाएं।
भवदीय
डॉ. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
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