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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अभय और शान्ति केवल दर्शन ही नहीं हैं, अपितु यह एक आचरण है । वह संकटकालीन स्थिति से उबरने का उपाय भी है। अभय में असीम शक्ति है। उस शक्ति का जागरण तभी सम्भव हो सकता है, जब उसका बोध हो, प्रशिक्षण हो और प्रयोग हो । आज हम यह देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक राष्ट्र अपनी सुरक्षा के साधनों के रूप में अस्त्र-शस्त्रों की दौड़ में पड़ा हुआ है और अपने बजट का पचास प्रतिशत से अधिक भाग केवल सुरक्षा के नाम पर खर्च करता है। यदि अभय और मैत्री भाव का विकास हो सके, तो यह राशि मानव-कल्याण में काम आ सकती है। इस विशाल राशि से गरीबी और भूख की पीड़ा को मिटाया जा सकता है, इसलिए जैनदर्शन एवं भगवान् महावीर की यही शिक्षा है कि हम परस्पर अभय का विकास करें । सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है - दानों में यदि कोई श्रेष्ठ दान है, तो वह अभय प्रदान करना है। 212 हम दूसरों को अभय प्रदान करें और स्वयं अभय को प्राप्त हों। इस प्रकार, विश्वशान्ति की स्थापना के लिए अभय और निःशस्त्रीकरण अति आवश्यक है, 213 और यही वर्त्तमान परिवेश में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होगा । अविश्वास शस्त्र - विस्तार को जन्म देता है, जबकि विश्वास अभय को जन्म देता है । अभय से निःशस्त्रीकरण संभव है और निःशस्त्रीकरण से ही विश्वशान्ति । · 154 इस प्रकार, प्रस्तुत अध्याय में हमने भयसंज्ञा के स्वरूप एवं लक्षणों की चर्चा के पश्चात् भयसंज्ञा के कारणों और दुष्परिणामों की चर्चा की । तदुपरान्त, भय के विभिन्न रूपों एवं प्रकारों की चर्चा करते हुए जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा और उसका विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस प्रकार, भयसंज्ञा के विविध पक्षों के विवेचन के पश्चात् प्रस्तुत अध्याय में, आधुनिक मनोविज्ञान में भय की क्या अवधारणा है - इसकी चर्चा की और पाया कि आधुनिक मनोविज्ञान में भय को एक मूलप्रवृत्ति के रूप में तथा संवेग के रूप में विवेचित किया गया है । तत्पश्चात्, आधुनिक मनोविज्ञान में भय की अवधारणा और उसकी जैनदर्शन से तुलना की गई है। इन सब चर्चाओं के पश्चात् हमने देखा कि प्रत्येक प्राणी में भयसंज्ञा पाई जाती है, फिर भी आध्यात्मिक - साधना और आध्यात्मिक - विकास की दृष्टि से हमें भय से अभय की ओर ही बढ़ना होगा, क्योंकि आज विश्व में जो अस्त्र-शस्त्रों की दौड़ है, राष्ट्रों का पारस्परिक - अविश्वास या 212 213 दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं - सूत्रकृतांगसूत्र- 1 /6/23 अभओ पत्थिवा । तुमं अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिसाए पसज्जसि ।। Jain Education International उत्तराध्ययन- 18/11 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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