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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 153 भगवान् महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा था -"अभय से बढ़कर अन्य कोई भी वस्तु नहीं" और अभय का विकास पारस्परिक-विश्वास से होगा। कहा भी गया है- "अशस्त्र में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं।' आज विश्व-शान्ति के लिए निःशस्त्रीकरण आवश्यक है और यह निःशस्त्रीकरण भय और अविश्वास को समाप्त करके ही संभव है। इसके लिए हमें अभय का विकास करना होगा, अभय के विकास से पारस्परिक- विश्वास बढ़ेगा और मानव-जाति सुख और शान्तिपूर्वक अपना जीवन जी सकेगी। विश्व शान्ति मानव-जाति के अस्तित्व, विकास एवं प्रगति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। युद्ध का भय, विकास एवं प्रगति के सभी साधनों को शांतिपूर्ण उपयोग से हटाकर युद्ध या युद्ध की तैयारियों के लिए मोड़ देता है। मानव-इतिहास के रक्तरंजित पृष्ठ युद्ध की भयानकता व विनाशकता के जीवन्त उदाहरण हैं, किन्तु जब-जब मानव युद्ध से त्रस्त हुआ, तब-तब शान्ति की अधिकतम आवश्यकता अनुभव की गई। बीसवीं शताब्दी से पूर्व विश्व-शांति के सामूहिक प्रयास बहुत कम हुए। कलिंग-युद्ध के पश्चात् सम्राट अशोक ने युद्ध का परित्याग कर अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रण किया, बाद में एशिया, अफ्रीका, यूरोप आदि क्षेत्रों में युद्धोपरान्त जो सन्धियाँ हुईं, उनका उद्देश्य द्विपक्षीय-विवाद को समाप्त कर क्षेत्रीय-शान्ति कायम करना था। प्रथम विश्वयुद्ध की वीभत्सता को दृष्टिगत रखते हुए युद्ध टालने एवं शांति कायम करने हेतु 'लीग ऑफ नेशन्स' की स्थापना हुई, लेकिन युद्ध-संकट फिर भी न टल सका। द्वितीय विश्वयुद्ध में महाविनाश का सामना करना पड़ा। विश्व में शान्ति की स्थापना तथा परस्पर विवादों के हल हेतु संयुक्तराष्ट्र संघ की स्थापना की गई। संयुक्तराष्ट्र संघ के उद्देश्यों में विश्व-शांति तथा सुरक्षा को कायम रखना एवं शान्ति के लिए उत्पन्न खतरों को सामूहिक सुरक्षा द्वारा रोकना प्रमुख है। अभय और शांति मानव-जाति की शाश्वत अभिलाषा रही है। इसे जीवन के श्रेष्ठतम मूल्यों में रखा जाता है। युद्ध कभी अच्छा नहीं होता और शांति कभी भी बुरी नहीं होती। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, 'शांति' शब्द का अर्थ है- युद्ध से मुक्ति। दो युद्ध-शक्तियों में शांति-संधि, अर्थात् युद्ध की समाप्ति तथा युद्धरत राष्ट्रों में संधि कर शांति स्थापित की जा सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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