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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जब वह सत्य कहने से डरता है, जब व्यक्ति सत्य का सामना नहीं कर • पाता है, तब ही उसे असत्य का सहारा लेना पड़ता है। झूठ बोलते समय मात्र भय रहता है। आदमी एक मिनट में झूठ बोल देता है, किन्तु झूठ बोलने के बाद कई दिनों तक उसका यह भय नहीं मिटता कि दूसरों को कहीं इसका पता न लग जाए। मृषावादी के मन में यह भय हमेशा बना रहता है। एक छोटे बच्चे से पूछा गया, – “तुम झूठ क्यों और कब बोलते हो?" जवाब में उसने कहा -"मम्मी के भय के कारण।" डाँट और मार के भय से डरकर वह झूठ बोलता है। फिर, धीरे-धीरे जिन्दगी के हर उस पहलू पर, जिसके उजागर होने से आदमी डरता है, झूठ बोलकर आत्म-रक्षा करता है, अतः भय ही झूठ का कारण है और अभय सत्य का हेतु है। जो अभय है, वह असत्य में रमण नहीं करता है। भयभीत आदमी सदा अतीत की यादों अथवा भविष्य की कल्पना-रूप यथार्थ में रमण करता रहता है। जो मात्र वर्तमान में जीता है, वही अभय को उपलब्ध है। अगर एक व्यक्ति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ यह प्रत्याख्यान करता है, या प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी भी परिस्थिति में तीन करण और तीन योग से झूठ नहीं बोलेगा, तो यह भी निश्चित मानो की उसका डर भाग जाएगा, क्योंकि सच बोलने से पहले डर लगता है। इस प्रकार, मात्र सत्यवादी ही अभय की साधना कर सकते हैं।
3. अदत्तादान-विरमणव्रत -
न दत्त इति अदत्त, अर्थात् जो नहीं दिया गया हो, वह अदत्त होता है।198 इन्सान चोरी कब करता है ? या चोरी की भावना पैदा ही तब होती है, जब वह परद्रव्य पर अधिकार कर अपने भविष्य की सुरक्षा चाहता है। व्यक्ति अभाव की कल्पना से डरता है। प्रतिपक्षी की समृद्धि देख ईर्ष्या करता है, उससे भयभीत होता है। यदि वह इन भयों से रहित हो जाए, तो चोरी की आवश्यकता ही क्यों पड़े। माया-कपट का सहारा डरपोक व्यक्ति ही लेता है। अदत्त के विरमण से साधक स्वयं के भीतर अभय-चेतना का विकास करता है। चोरी करते चोर के भीतर कुछ भय पैदा हो जाते हैं, जैसे -पकड़े जाने का भय। चोरी करते ही प्राणधारा सिकुड़ने लगती है, व्यक्ति अपने को दोषी अनुभव करता है, Guilty feel करता है और भविष्य से डरने लगता है, जबकि अचौर्य की साधना व्यक्ति को हर प्रकार के भय से या छल-प्रपंच से मुक्त करती है।
198 'अदत्तादानं स्तेयम्' – तत्त्वार्थसूत्र 7/15
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