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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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1. प्राणातिपात-विरमण-व्रत -
जीव-हिंसा का विचार भय के कारण ही उत्पन्न होता है। जितनी भी हिंसा है, आक्रामक-वृत्ति है, वह आत्म-सुरक्षा के भय से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया-रूप है। यदि जीव में स्वयं के बचाव की भावना न हो, तो वह दूसरे जीवों पर आक्रमण क्यों करे? क्यों दूसरों को दबाए, डराए, गुलाम बनाए ? हिंसा का महत्त्वपूर्ण कारण जीव की मानसिकता में छुपी हुई भयवृत्ति है। जितने भी हिंसक साधनों का, अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण होता है, वह क्यों होता है ? क्योंकि हम अपनी सुरक्षा चाहते हैं। कहते हैं कि हमारे शरीर के अंगोपांग भी भय के कारण ही विकसित हुए हैं। जब यह प्राणी एकेन्द्रिय-योनि में था, वहाँ से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय - ये सारी अवस्थाएँ जीव में अपने-आप सुरक्षा की भावना से ही विकसित हुई हैं। सिंह, बाघ, और जंगली जानवरों के नाखून बहुत तीखे एवं बड़े होते हैं, वे आदमी के शरीर को फाड़ डालते हैं। उनसे बचने के लिए आदमी ने सर्वप्रथम भाले बनाए, फिर धनुष-बाण बनाए और फिर धीरे-धीरे सभी हथियार स्वजाति-भय और परजाति-भय से बचने के लिए आविष्कृत होते गए और आज हम परमाणु बम के युग तक पहुंच गए हैं। तभी आचारांगसूत्र में कहा है
अत्थि सत्थं परेणपरं, नत्थि असत्थं परेणपरं ।।197
अर्थात, शस्त्र (हिंसा के साधन) एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु अशस्त्र (अभय) से बढ़कर कुछ नहीं, अतः यदि हम भयरहित हो जाते हैं, तो हिंसा स्वयमेव ही समाप्त हो जाएगी। भय और पर के प्रति ममत्ववृत्ति से जितने-जितने अंश में मुक्ति होगी, उतने-उतने ही हम अभय या मुक्ति की दिशा में अग्रसर होंगे।
2. मृषावाद-विरमण-व्रत -
असत्य की वृत्ति भी भय से ही होती है। उसका निमित्त भी भय ही है। भय से ही व्यक्ति झूठ बोलता है। मृषावादविरमण-व्रत यह बताता है कि साधक असत्य भाषण न करे। व्यक्ति झूठ या असत्य तभी बोलता है,
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