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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 139 (सहयोगी नाड़ी- तन्त्र) सक्रिय हो जाता है, यानी पिंगला नाड़ी सक्रिय हो जाती है और जब अभय की भाव-धारा होती है, तो पैरासिम्पेथैटिक नर्वस सिस्टम (परासहयोगी नाड़ी-तन्त्र) सक्रिय हो जाता है, अर्थात् इड़ा नाड़ी का प्रवाह सक्रिय हो जाता है। उस समय कोई उत्तेजना नहीं होती, शांति और सुख का अनुभव होता है, सब कुछ अच्छा लगता है।194 प्रश्न यह है कि भय से मुक्त होकर अभय की साधना किस प्रकार से करें? अधिक-से-अधिक अभय की भाव-धारा को कैसे प्रवाहित कर सकें? अधिक-से-अधिक अभय को कैसे अनुभूत कर सकें ? भय और अभय की साधना में यह स्पष्ट है कि भय हेय (त्याज्य) है और अभय उपादेय (ग्राह्य)। हमें भय की भाव-धारा को त्यागना है और अभय की भाव-धारा को विकसित करना है। ___ जैन-शास्त्रों में दो शब्द मिलते हैं - भय और उसका विलोम अभय। 'अभय' शब्द तीर्थंकर परमात्मा के लिए शक्रस्तव स्तोत्र में प्रयोग किया गया है, उन्हें अभय दयाणम् - अर्थात् अभय-प्रदाता कहा गया है, मगर चिन्तन का विषय यह है कि भय को संज्ञा कहा गया है, अभय को नहीं, क्योंकि अभय तो आत्म चेतना है, अप्रमाद की दशा है। जैनदर्शन में आत्मा की अवस्था को दो रूपों में व्यक्त किया गया है - स्वभावगत और विभावगत। अभय स्वभावगत है, अतः उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - अभय को चाहने वालों दूसरों को अभय प्रदान करो, क्योंकि अभय की भाव-धारा अभय से ही बहेगी।195 स्वभाव आत्मा का अपना निज धर्म है, जबकि विभाव उसकी भ्रान्त-दशा या भ्रमणा है। वैदिक-दर्शन में इसे ही माया शब्द से संबोधित किया गया है। इस भ्रमणा को, विभाव की गहन मनःस्थिति को ही चार संज्ञाओं के रूप में दर्शाया गया है, जो शरीर और इन्द्रियों के रहते ही संभव है, जैसे - आहारसंज्ञा शरीर-धर्म होने से विभावदशा है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव निराहार है। इसी प्रकार, मैथुन और परिग्रह भी शरीर और इन्द्रियों से ही सम्बन्धित हैं, जोकि शरीर की मांग या मनःस्थिति को परिलक्षित करते हैं। उसी प्रकार, भय तब तक ही संभव है, जब तक कि 194 अभय की खोज, युवाचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 72 195 अभओपत्थिवा ! तब्भं अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि कि हिंसाए पसज्जखि।। - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 18, गाथा 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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