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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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उन्होंने प्रयोग के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि छोटी उम्र के बच्चे, जो नासमझ हैं, उन्हें तेज आवाज और अनजान व्यक्ति या वस्तु से अधिक डर लगता है, जबकि बड़ी उम्र के बच्चों को भयानक जानवरों और आने वाली आपत्ति से अधिक भय लगता है। मनोविज्ञान के अनुसार Pain, Anxiety, worry & Phobias- यह सब भय के ही विविध प्रकार कहे जा सकते हैं, परन्तु तीव्रता के क्रम के अनुसार इनमें अंतर दिखाई देता है।
दर्द और भय (Pain & Fear) में घनिष्ट सम्बन्ध है। दर्द इस . बात का सूचक है कि दैहिक-संरचना को खतरा है। वह यह बताता है कि शरीर में कोई खतरनाक घटना घटित होने वाली है, जैसे – किसी व्यक्ति की अंगुली जलती है, तो वह हाथ खींच लेता है, या अपनी अंगुली को वहाँ से अलग कर लेता है। इस प्रकार, दर्द की अनुभूति व्यक्ति को सुरक्षात्मक व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है और यह सुरक्षात्मक-व्यवहार भय के कारण ही होता है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, डर (Fear) तथा दुश्चिन्ता (Anxiety)- दोनों एक-दूसरे से काफी संबंधित संवेग (Related emotion) हैं। डर एक ऐसी संवेगात्मक- स्थिति है, जिसमें किसी ऐसी खतरनाक (dangerous) वस्तु या घटना के प्रति व्यक्ति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जिससे वह आसानी से छुटकारा नहीं पा सकता। दुश्चिन्ता (Anxiety) चिरकालिक डर का ही दूसरा नाम है। दुश्चिन्ता में मानसिक- स्थिति अस्पष्ट होती है, लेकिन यह संचयी होती है और प्रत्येक क्षण यह एक खास स्थिति तक बढ़ती ही जाती है।
यदि हम वयस्क व्यक्ति के भय और चिंता का अध्ययन करें, तो सर्वप्रथम व्यक्ति उन भयकारक परिस्थितियों को सीखता है, जो वस्तुतः दुःख उत्पन्न करती हैं, जैसे - एक बच्चा अग्नि से हाथ जल जाने के बाद दर्द की अनुभूति से यह निश्चित कर लेता है कि आग के संपर्क से दर्द होता है, अतः वह आग से भयभीत होता रहता है। इस प्रकार; भय, दर्द और चिन्ता -ये तीनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जो-जो दुःखद अनुभूतियाँ हैं, वे सब भय को जन्म देती हैं। चिन्ता, भय और दुःख -ये तीनों शब्द एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, किन्तु इन तीनों में एक क्रम भी है। दुःख की अनुभूतियाँ भय को उत्पन्न करती हैं और भय से
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