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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
बना रहा और सम्यक् प्रकार से खाते हुए भी वह शक्तिहीन ही
बना रहा ।
8. प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है - " भयभीत व्यक्ति तप और संयम की साधना छोड़ बैठता है, भयभीत व्यक्ति किसी भी गुरुतर दायित्व ,178 को नहीं निभा सकता है। "
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9. भय के संवेग में हमारी विभिन्न ग्रंथियों से जिन-जिन रसों का स्राव होता है, वह हमारे शरीर को प्रभावित करता है ।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि भय से न केवल मानसिक व शारीरिक-स्तर प्रभावित होता है, अपितु भय सामाजिक स्तर पर भी प्रभावित करता है । भय के कारण पारस्परिक - विश्वास समाप्त हो जाता है और व्यक्ति हिंसक व आक्रामक बन जाता है, अतः भयमुक्त जीवन में ही सामाजिक - संबंधों की मधुरता रह सकती है ।
जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा तथा उसका विश्लेषण
संसार के प्रत्येक प्राणी में 'भयसंज्ञा' कम या अधिक मात्रा में अवश्य पाई जाती है। किसी-न-किसी रूप से सभी प्राणी भयग्रस्त बने रहते हैं । जैन-ग्रन्थों में कहा गया है कि स्वर्ग के देव भी अपने च्यवन (मृत्यु) काल को जानकर भयभीत हो जाते हैं। मनुष्य अकेला रहने से कतराता है, अतः निरंतर 'पर' में उलझा रहता है। 'पर' की कांक्षा ( इच्छा) जीव को भूत एवं भविष्य में उलझाए रखती है । वह स्वयं में जी ही नहीं पाता है और उसकी यह 'पर' की कांक्षा कभी समाप्त नहीं होती है।
179 जैसे
भूत की जानकारियां एवं अनुभव आदमी में भविष्य के प्रति भी भय उत्पन्न करते हैं । भयाकुल व्यक्ति ही भूतों का शिकार होता है, - आदमी गरीबी से बचने के लिए सम्पत्ति एकत्रित करता है । भविष्य की असुरक्षा का भय व्यक्ति की संचय या परिग्रह - वृत्ति को बढ़ावा देता है । कल बीमार न हो जाऊँ, कल मर न जाऊँ, इसलिए आदमी आज ही सुरक्षा के साधनों को ढूंढता है और उनका संचय करता है। वह इन
178 भीतो तव संजम पि हु मुज्जा ।
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भीतो य भरं न नित्थरेज्जा ।। -
भीतो भूतेहिं छिप्पर । - प्रश्नव्याकरणसूत्र - 2 /2
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प्रश्नव्याकरणसूत्र - 2 /2
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