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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 121 रहे थे कि क्या बिना ऊँट, बैल, घोड़े के यह रेलगाड़ी कोयले से बनी भाप से चल पाएगी और यदि नहीं चली या गिर गई, तो हमारा क्या होगा ? पर जब ज्ञान हुआ, तो वे सहज ही यात्रा करने लगे। कहते हैं- 'अज्ञानात् जायते भयं', अर्थात् भय अज्ञान की संतति है। 3. मिथ्या ज्ञान के कारण भय - मिथ्यात्व गलत धारणा या भ्रमित जानकारी को कहते हैं। आदमी अपनी ही कल्पित धारणाओं को दूसरों पर आरोपित करके भयभीत बना रहता है। उदाहरणस्वरूप, थोड़ी-सी रोशनी के कारण दिखाई दे रही रस्सी को सांप समझ लेना मिथ्याज्ञान है। जब किसी के बारे में सही जानकारी नहीं होती है, तो अज्ञात व्यक्ति, आवाज अथवा वस्तु से भी भय बना रहता है। 4. अहंकार के कारण भय - अहंकार भय का प्रमुख कारण है। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जब तक अंहकार है, तब तक भय बना रहता है। यह अहंकार आत्म- ज्ञान के अभाव के कारण ही है। 'मैं भी कुछ हूँ –यह अहंकार भय को उत्पन्न करता है। मेरा नाम कोई बदनाम न कर दे, मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में न मिल जाए, आदि सब 'भय' अहंकार की देन हैं और अंहकार आत्म अज्ञान का परिणाम है। उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त सामाजिक-मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर तथा नैतिक आचार संहिता के विपरीत आचरण करने पर, या मर्यादा का अतिक्रमण करने पर भी भय की उत्पत्ति होती है। भय के दुष्परिणाम - भय के निम्नलिखित दुष्परिणाम माने जा सकते हैं - 1. भय की स्थिति में व्यक्ति स्वयं तनावग्रस्त होता है। तनावग्रस्त होने के साथ-साथ वह कभी-कभी आक्रामक भी हो सकता है, जैसे - कोई व्यक्ति सांप या विषैले प्राणी को देखकर पहले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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