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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जीवन जीने की कला को सीख नहीं पाते हैं। अंततः, भयभीत बना रहना, जीवन में खतरे का सामना न करना ही जीवन की विकास यात्रा का सबसे बड़ा खतरा बन जाता है।
भय के कारण को स्पष्ट करते हुए दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है - "सोच ही मूल कारण है भय का। भूतक़ाल की कोई दुःखद घटना भय पैदा कर देती है कि वह दोबारा घटित न हो जाए। 'भूतकाल में यदि सुख भोगा है, तो आदमी को भय लगने लगता है कि भविष्य में कहीं वह सुख को खो तो न देगा। सोच कोशिश पैदा करती रहती है और यह चिन्ता-कल्पना ही Worry, Tension आदि का रूप ले लेती है।176
- पशु या अन्य जीव भय की स्थिति में पहले पलायन की कोशिश करेगा, अन्यथा आक्रमण कर देगा, किन्तु भय की स्थिति में मानव दूसरे लोगों की इच्छानुसार चलेगा और स्वयं की प्राथमिकता त्याग देगा। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार किसी व्यक्ति के डर को हम इन लक्षणों से पहचान सकते हैं -
चेहरे के हावभाव (Facial Expression), आँखें खुली रह जाना, भौंहे तन जाना, ओंठ खुले रह जाना, कुछ बोलने में असमर्थ होना।
सामान्यतः, शारीरिक-परिवर्तनों को ही भय माना जाता है, जबकि उसके पीछे मानसिक और आध्यात्मिक-कारण भी हैं। भय के शारीरिक-लक्षण निम्न हैं -
1. पसीना आ जाना। 2. पलकें झपकाना या शरीर में रोमांच होना। 3. माँसपेशियाँ तन जाना। 4. चोट लगने के डर से अनायास ही अपना चेहरा या सिर ढंक
लेना।
176 चरममंगल (हिन्दी मासिक पत्रिका), फरवरी 2008, पृ. 22
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