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________________ 114 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व भी दो भेद हैं – कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। जो कषाय को उत्पन्न करने में निमित्त-रूप होते हैं, अथवा कषायों का परिणय होता है, वे नोकषाय कहलाते हैं। नोकषाय मोहनीय कर्म के नौ भेद हैं - 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. पुरुष वेद, 8. स्त्रीवेद, 9 नपुंसकवेद। इसमें भय-नोकषाय को ही भयमोहनीय-कर्म कहा गया है। जिस कर्म के उदय से जीव निमित्तों को प्राप्त करके, अथवा प्राप्त किए बिना भयभीत होता है, उसे भयमोहनीय-कर्म कहते हैं। जब भयमोहनीय-कर्म का उदय होता है, तो प्राणी भयभीत बनता है। भयमोहनीय-कर्म के उदय से शरीर में रोमांच, कंपन, घबराहट आदि क्रियाएं होती हैं,170 जो भय की उत्पत्ति की सूचक हैं। आचारांगनियुक्ति की टीका में मोहनीयकर्म के उदय को भयसंज्ञा का कारण बताया है।171 मोहनीय-कर्म दर्शनमोहनीय-कर्म चारित्रमोहनीय-कर्म सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय मिथ्यात्वमोहनीय कषाय नोकषाय हास्य रति अरति भय शोक जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद 170 तत्त्वार्थसार - 2/26 171 आचारांगनियुक्ति टीका, गाथा 26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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