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________________ ६० प्रज्ञापना सूत्र 种种种种种种种种种种种种种种种种种林林林林林林林林林林林 ४. अमनोज्ञ रस - स्वयं को जिसका अनुभव नहीं हो ऐसा दुःख देने वाले मन को अप्रिय लगने वाले रस। ५. अमनोज्ञ स्पर्श - कर्कश आदि अमनोज्ञ स्पर्श। ६. मनोदुःखता - मन संबंधी दुःख। . ७. वाक् दुःखता - वचन का दुःख, अप्रिय वाणी। ८. काय दुःखता - शरीर संबंधी दु:ख, दुःखी शरीर। ये आठ पदार्थ असाता वेदनीय के उदय से प्राणियों को प्राप्त होते हैं। अत: आठ प्रकार असातावेदनीय का विपाक कहा गया है। परतः असातावेदनीय का उदय इस प्रकार होता है - विष, शस्त्र, कंटक आदि पुद्गल वेदता है-अनुभव करता है। विष, शस्त्र और कंटक आदि बहुत से पुद्गलों को वेदता है। अपथ्य आहार रूप पुद्गल परिणाम को वेदता है। विस्रसा-स्वभाव से अकाल में अनिष्ट शीतोष्ण आदि रूप पुद्गल परिणाम को वेदता है जिससे मन को असमाधानअस्वस्थता होने से असाता वेदनीय कर्म का अनुभव होता है यानी असातावेदनीय कर्म का फल असाता-दुःख का अनुभव करता है। यह असातावेदनीय का परतः उदय है किन्तु बिना ही किसी दूसरे निमित्त के असातावेदनीय कर्म पुद्गलों के उदय से जो दुःख का अनुभव होता है वह स्वतः असातावेदनीय का उदय है। इस प्रकार असातावेदनीय कर्म कहा गया है। मोहणिजस्स णं भंतें! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कइविहे अणुभावे पण्णत्ते? गोयमा! मोहणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते। तंजहा - सम्मत्तवेयणिजे, मिच्छत्तवेयणिजे, सम्मामिच्छत्तवेयणिजे, कसायवेयणिजे, णोकसायवेयणिजे। जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम का वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं मोहणिजं कम्मं वेएइ, एस णं गोयमा! मोहणिजे कम्मे। एस णं गोयमा! मोहणिजस्स कम्मस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते॥६०५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् .मोहनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. सम्यक्त्व-वेदनीय २. मिथ्यात्व वेदनीय ३. सम्यग्-मिथ्यात्व वेदनीय ४. कषाय वेदनीय और ५. नो कषाय वेदनीय। जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का या पुद्गल परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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