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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार जिससे साता का अनुभव हो। इस प्रकार मनोज्ञ शब्द आदि से स्वयं को साता सुख का कारण बताया गया है और 'मणो सुहया' आदि से स्वयं के शुभ मन वचन प्रवर्तने से एवं स्वस्थ काया से होने वाला सुख बताया गया है। इसी प्रकार असाता वेदनीय के आठों अनुभाव में असाता एवं दुःख की अपेक्षा समझना चाहिए। अब परतः सातावेदनीय का उदय बताते हैं - जं वेएइ पुग्गलं - जो पुष्पमाला और चन्दन आदि के पुद्गल को वेदता है-अनुभव करता है, पोग्गले वा या माला और चन्दन आदि के बहुत से पुद्गलों को वेदता है। - पोग्गल परिणामं वा या देश, काल, वय और अवस्था के योग्य आहार के परिणाम रूप पुद्गल परिणाम को वेदता है। वीससा वा पोग्गलाण परिणामं जिस काल में इष्ट शीत और उष्ण आदि वेदना के प्रतीकार रूप विस्स्रसा से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है जिससे मन का समाधान - स्वस्थता होने से सातावेदनीय कर्म का अनुभव करता है। अर्थात् साता वेदनीय कर्म का फल सुख भोगता है इस प्रकार पर के आश्रित उदय कहा गया है। अब स्वतः उदय कहते हैं - सातावेदनीय कर्म के स्वतः उदय होने से कभी-कभी मनोज्ञ शब्दादि के बिना भी सुख वेदता है जैसे तीर्थंकर आदि का जन्म होने पर नैरयिक जीव कुछ समय के लिए सुख का अनुभव करते हैं। असायावेयणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा उत्तरं च, णवरं अमणुण्णा सद्दा जाव कायदुद्द्या, एस णं गोयमा! असायावेयणिज्जस्स जाव अट्ठवि अणुभावे पण्णत्ते ॥ ६०४॥ Jain Education International ५९ - - **************** भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् असातावेदनीय कर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! इसका उत्तर भी पूर्ववत् सातावेदनीय कर्म सम्बन्धी कथन के समान जानना किन्तु विशेषता यह है कि 'मनोज्ञ' के स्थान पर 'अमनोज्ञ' तथा सुख के स्थान पर दुःख यावत् काया का दुःख समझना। हे गौतम! इस प्रकार असातावेदनीय का अनुभाव भी आठ प्रकार का कहा गया है। विवेचन - असातावेदनीय कर्म का विपाक आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है१. अमनोज्ञ शब्द गधा, ऊँट और अश्व आदि के द्वारा बोले जाने वाले मन को अप्रिय लगने वाले शब्द | २. अमनोज्ञ रूपं - अपना अथवा अपनी स्त्री आदि का अमनोज्ञ रूप । ३. अमनोज्ञ गंध - बैल, भैंस आदि के मृत कलेवर आदि की गंध । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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