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बाईसवाँ क्रियापद - पापों से विरत जीवों के कर्म प्रकृति बंध
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विवेचन - मिथ्यादर्शन शल्य की विरति अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली । गुणस्थान तक होती है।
मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते! णेरइए कइ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत एक नैरयिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है?
उत्तर - हे गौतम! वह सप्तविधबन्धक अथवा अष्टविधबन्धक होता है, यह कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक तक समझना चाहिए।
मणूसे जहा जीवे।
भावार्थ - एक मनुष्य के सम्बन्ध में कर्मप्रकृतिबन्ध का आलापक सामान्य जीव के आलापक के समान कहना चाहिए।
वाणमंतर जोइसिय वेमाणिए जहा जेरइए।
भावार्थ - वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के सम्बन्ध में कर्मप्रकृति बन्ध का आलापक एक नैरयिक के कर्मप्रकृतिबन्ध सम्बन्धी आलापक के समान कहना चाहिए।
विवेचन - नैरयिक आदि चौबीस दण्डकों के विचार में मनुष्य के सिवाय बाकी सभी स्थानों में सप्तविधबंधक या अष्टविध बंधक होते हैं किन्तु षड्विधबन्धक आदि नहीं होते क्योंकि उन जीवों को श्रेणि की प्राप्ति नहीं होती। मनुष्य के लिए सामान्य जीव की तरह आलापक कहना चाहिये।
मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते! जीवा कइ कम्मपगडीओ बंधति? गोयमा! ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत अनेक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं? उत्तर - हे गौतम! वे पूर्वोक्त ही २७ भंग यहाँ कहने चाहिए। . मिच्छादंसणसल्लविरया णं भंते! णेरइया कइ कम्मपगडीओ बंधंति?
गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधए य, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य। ___भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत अनेक नैरयिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं?
बधात?
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