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________________ ३६ प्रज्ञापना सूत्र य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य अबंधगा य ८, एवं एए अट्ठ भंगा, सव्वे वि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! प्राणातिपात से विरत अनेक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? उत्तर - हे गौतम! १. समस्त जीव सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं। १. अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक अनेक एकविधबन्धक होते हैं और एक अष्टविधबन्धक होता है २. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, अनेक एकविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक होते हैं ३. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्धक होता है ४. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक एकविधबन्धक तथा षड्विधबन्धक होते हैं ५. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है ६. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक . और अबन्धक होते हैं। १. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, अनेक एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है २. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक तथा एक अष्टविधबन्धक . और अनेक षड्विधबन्धक होते हैं ३. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्धक होता है ४. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं। १. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक और एक अबन्धक होता है २. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक एवं अनेक अबन्धक होते हैं ३. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है ४. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और अबन्धक होते हैं। १. अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्धक एवं अबन्धक होता है २. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्धक एवं अनेक अबन्धक होते हैं ३. अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है ४. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, षड्विधबन्धक और अबन्धक होते हैं। १. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक और अबन्धक होता है २. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होता है एवं अनेक अबन्धक होते हैं ३. अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक, अनेक षड्विधबन्धक और एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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