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बाईसवाँ क्रियापद - पंचविधक्रियाएं और उनके स्वामी
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पारिग्रहिकी क्रिया किसके होती है ? उत्तर - हे गौतम! पारिग्रहिकी क्रिया किसी संयतासंयत के होती है। मायावत्तिया णं भंते! किरिया कस्स कज्जइ? गोयमा! अण्णयरस्स वि अपमत्तसंजयस्स।. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! माया प्रत्यया क्रिया किसके होती है? उत्तर - हे गौतम! माया प्रत्यया क्रिया किसी अप्रमत्तसंयत के होती है। अपच्चक्खाणकिरिया णं भंते! कस्स कज्जइ? गोयमा! अण्णयरस्स वि अपच्चक्खाणिस्स। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अप्रत्याख्यान क्रिया किसके होती है ? उत्तर - हे गौतम! अप्रत्याख्यान क्रिया किसी अप्रत्याख्यानी के होती है। मिच्छादसणवत्तिया णं भंते! किरिया कस्स कज्जइ? गोयमा! अण्णयरस्स वि मिच्छादंसणिस्स॥५९२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया किसके होती है? उत्तर - हे गौतम! मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया किसी मिथ्यादर्शनी के होती है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में किस क्रिया का कौन स्वामी होता है ? इसका कथन किया गया है। उसका वर्णन इस प्रकार है .- १. आरा भकी क्रिया-'अण्णयरस्स पमत्त संजयस्स' आरम्भिकी क्रिया छठे गुणस्थान तक के सभी जीवों को लगती है। शुभयोगी प्रमत्त संयत को भी आरम्भिकी क्रिया लगती है। परन्तु बहुत सूक्ष्म रूप में लगने से भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक १ में उसको गौण करके शुभयोगी प्रमत्त संयत को अनारंम्भी बता दिया है - जब की यहाँ पर सूक्ष्म रूप से लगने पर भी उसको क्रिया लगना बताया है। यहाँ पर उसे गौण नहीं किया है अथवा आगमकारों को 'अण्णयरस्स' शब्द से मात्र 'अशुभयोगी प्रमत्तसंयत' ही इष्ट होगा। शुभ योगी को आरम्भिकी क्रिया लगना इष्ट नहीं होगा। तत्त्व केवली गम्य॥
. २. पारिग्रहिकी क्रिया - 'अण्णयरस्स वि संजयासंजयस्स' - पारिग्रहिकी क्रिया पांचवें गुणस्थान तक के सभी जीवों को लगती है। एक व्रतधारी को भी "अप्रत्याख्यान क्रिया" नहीं लगती है। व्रतधारी के जो पाप खुले हैं अर्थात् जिसका त्याग नहीं किया है उनसे आने जाने वाली क्रिया 'पारिग्रहिकी क्रिया' लगेगी। पांचवें गुणस्थान में ११ अव्रत (थोकड़े में) अपेक्षा से कह दिये हैं क्योंकि वह व्रती तो मात्र त्रसकाय का ही बना है। शेष अव्रतों की क्रियाओं का पारिग्रहिकी क्रिया में समाविष्ट होना समझा। अत: ११ अव्रत बोलने में भी बाधा नहीं है।
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