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________________ ३२४ प्रज्ञापना सूत्र MY F KP轉HEHEI-H4-HEIGHEELEMENTIFYMANMEN इसी प्रकार नैरयिक के विषय में समझना चाहिये विशेषता यह है कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में व्याप्त होता है और इतना ही स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय, तीन समय के विग्रह से कहना चाहिये किन्तु चार समय के विग्रह से नहीं कहना चाहिये। शेष सारा वर्णन यावत् पांच क्रियाएं लगती हैं तक कह देना चाहिये। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मारणांतिक समुद्घात से समवहत जीव के क्षेत्र काल एवं क्रिया की प्ररूपणा की गयी है। मारणांतिक समुद्घात द्वारा जीव जो पुद्गल बाहर निकालता है वे पुद्गल मोटाई तथा चौडाई में शरीर प्रमाण और लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र एक दिशा में आपूरित करते हैं एवं स्पृष्ट करते हैं। यह क्षेत्र एक, दो, तीन अथवा चार समय * की विग्रहगति से आपूरित एवं स्पृष्ट करता है। मारणांतिक समुद्घात में जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त का काल लगता है। मारणांतिक समुद्घात से बाहर निकले हुए पुद्गलों से प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का अभिहनन यावत् प्राण व्यपरोण तथा उससे तीन, चार, पांच क्रियाएं लगना आदि सभी वर्णन वेदना समुद्घात की तरह कह देना चाहिये। नैयिक मारणांतिक समुद्घात कर जो पुद्गल बाहर निकालता है वे पुद्गल मोटाई और चौड़ाई में शरीर प्रमाण एवं लम्बाई में जघन्य एक हजार योजन से कुछ अधिक उत्कृष्ट असंख्यात योजन का क्षेत्र एक दिशा में आपूरित एवं स्पृष्ट करते हैं। यह क्षेत्र एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रह से आपूरित एवं स्पृष्ट करते हैं। असुरकुमारस्स जहा जीवपए, णवरं विग्गहो तिसमइओ जहा णेरइयस्स, सेसं तं चेव। जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिए, णवरं एगिदिए जहा जीवे णिरवसेसं॥ ७०३॥ भावार्थ - असुरकुमार का वर्णन समुच्चय जीव पद के अनुसार समझ लेना चाहिये। विशेषता यह है कि असुरकुमार का विग्रह नैरयिक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना चाहिये। शेष सारा वर्णन पूर्ववत् है। जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा उसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि एकेन्द्रिय का कथन समुच्चय जीव के समान कहना चाहिये। विवेचन - असुरकुमारों से लेकर दूसरे देवलोक तक के देव पृथ्वी, पानी और वनस्पति में जीव रूप से उत्पन्न होते हैं उस समय मारणांतिक समुद्घात करे तो लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को ही व्याप्त करता है। शेष वर्णन समुच्चय जीव की तरह कहना। अन्तर * विग्रहगति पांच समय की भी संभव है किन्तु इस तरह से उत्पन्न होने वाले जीव नहीं मिलते हैं, इसलिए पांच समय की नहीं बतायी गयी है अथवा कदाचित होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गयी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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