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________________ २० प्रज्ञापना सूत्र जस्स णं भंते! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पाओसिया किरिया कज्जइ, जस्स पाओसिया किरिया कज्जइ तस्स काइया किरिया कज्जइ? गोयमा! एवं चेव। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है क्या उसके प्राद्वेषिकी क्रिया होती है ? और जिसके प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है ? . उत्तर - हे गौतम! इसी प्रकार पूर्ववत् दोनों परस्पर नियम से समझना चाहिए। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इन क्रियाओं का एक जीव की अपेक्षा परस्पर नियत संबंध बताया गया है। प्रारम्भ की तीन क्रियाएं जीव में नियम से परस्पर सहभाव रूप में (एक साथ) रहती है तीनों क्रियाओं का परस्पर नियत संबंध इस प्रकार है - शरीर अधिकरण है। काय अधिकरण होने से जहाँ कायिकी क्रिया होती है वहाँ आधिकरणिकी क्रिया अवश्य होती है और जहाँ आधिकरणिकी होती है वहाँ कायिकी. अवश्य होती है। विशिष्ट कायिकी क्रिया प्रद्वेष के बिना नहीं होती अतः प्राद्वेषिकी क्रिया के साथ भी उनका परस्पर नियत संबंध है क्योंकि प्रद्वेष के चिह्न शरीर पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं कहा भी है - "रूक्षयति रुष्यतो ननु वक्त्रं स्निह्यति रज्यतः पुंसः। औदारिकोऽपि देहो भाववशात् परिणमत्येवम्।" __ - क्रोधित होने वाला का मुंह सूख जाता है और स्नेह करने वाले पुरुष का चेहरा स्निग्ध. होता है। इस प्रकार औदारिक शरीर भी भावों के वश इस प्रकार परिणमता है। अतः कायिकी के साथ प्राद्वेषिकी क्रिया प्रत्यक्ष देखी जाती है। जस्स णं भंते! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ, जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स काइया किरिया कज्जइ? गोयमा! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ, जस्स पुण पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स काइया किरिया णियमा कज्जइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उसके पारितापनिकी क्रिया होती है? तथा जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है? । उत्तर - हे गौतम! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके पारितापनिकी क्रिया कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है, किन्तु जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, उसके कायिकी क्रिया नियम से होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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