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________________ २९८ प्रज्ञापना सूत्र NISHYAMAZAKH-NA45HEFINEKKKKHHICHKHEM-4长长长长长长长长长长:4 -4 विवेचन - नैरयिक के नैरयिक पर्याय में आहारक समुद्घात संभव नहीं होने से अतीत आहारक समुद्घात नहीं होते। इसी प्रकार अनागत आहारक समुद्घात भी नहीं होते क्योंकि नैरयिक पर्याय में जीव को आहारक लब्धि नहीं होती है और आहारक लब्धि के अभाव में आहारक समुद्घात संभव नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमार आदि पर्याय में, पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर पर्यायों में, विकलेन्द्रिय पर्याय में, तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याय में, वाणव्यंतर पर्याय में, ज्योतिषी पर्याय में तथा वैमानिक पर्याय में अनागत आहारक समुद्घात नहीं होते क्योंकि इन सब पर्यायों में आहारक लब्धि नहीं होती। विशेषता यह है कि जब कोई नैरयिक पूर्व काल में मनुष्य पर्याय में रहा उसकी अपेक्षा किसी के आहारक समुद्घात होते हैं किसी के नहीं होते, जिसके होते हैं उसके जघन्य एक या दो उत्कृष्ट तीन होते हैं। किसी नैरयिक के मनुष्यत्व में अनागत आहारक समुद्घात किसी के होते हैं किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं उसके जघन्य एक, दो या तीन उत्कृष्ट चार होते हैं। जिस प्रकार नैरयिक के मनुष्यत्व में आहारक समुद्घात कहे हैं उसी प्रकार असुरकुमार आदि सभी जीवों में भी कह देना चाहिये किन्तु मनुष्य पर्याय में किसी मनुष्य के अतीत आहारक समुद्घात होते हैं किसी के नहीं होते, जिस के होते हैं उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं। इसी प्रकार अनागत आहारक समुद्घात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। इस प्रकार इन चौबीस दण्डकों के चौबीस दण्डकों में कुल मिला कर २४४२४-५७६ आलापक होते हैं। चौबीस दण्डकों में बहुत्व की अपेक्षा अतीत आदि समुद्घात एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवइया केवलिसमुग्घाया अतीता? गोयमा! णत्थि। केवइया पुरेक्खडा? . गोयमा! णत्थि। एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एक्को मणूसस्स मणूसत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एक्को, एवं पुरेक्खडा वि। एवमेए चउवीसं चउवीसा दंडगा॥६९३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! एक-एक नैरयिक के नैरयिक पर्याय में कितने केवलि समुद्घात अतीत हुए हैं? उत्तर - हे गौतम! एक-एक नैरयिक के नैरयिक पर्याय में अतीत केवलि समुद्घात नहीं हुए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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