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________________ छत्तीसवां समुद्घात पद - नैरयिक आदि भावों में वर्तते हुए एक-एक जीव के.... २९५ *EEEEEEEEEEEEEEEtatrakakteleasEtaclestatistatestEleelattestekickEEEEElectelarkastakesterkeletetasterstartstaketattatretElateletate विवेचन - पृथ्वीकायिक के नैरयिक पर्याय में यावत् स्तनितकुमार पर्याय में भूतकाल में अनंत कषाय समुद्घात हुए हैं। भविष्य में कषाय समुद्घात किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। उनमें जो पृथ्वीकाय के भव से निकल कर नरक में, असुरकुमार में यावत् स्तनितकुमार में जाने वाला नहीं है किन्तु मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष में जायेगा उसके कषाय समुद्घात नहीं होते। अन्य के होते हैं। जिसके होते हैं उसके जघन्य संख्यात होते हैं क्योंकि जघन्य स्थिति वाले नरक आदि में भी संख्यात कषाय समुद्घात होते हैं। उत्कृष्ट से असंख्यात अथवा अनंत होते हैं। पृथ्वीकायिक पर्याय में यावत् मनुष्य पर्याय में भूतकाल में अनंत कषाय समुद्घात हुए है। अनागत कषाय समुद्घात किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं उसके जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनंत होते हैं। उसका वर्णन जिस प्रकार नैरयिक का पृथ्वीकायिक पर्याय में कहा है उसी प्रकार समझना चाहिये। - वाणव्यंतर पर्याय में जिस प्रकार नैरयिक पर्याय में कहा उसी प्रकार कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि यहाँ एक से लगा कर अनन्त नहीं कहना परन्तु कदाचित् संख्यात होते हैं, कदाचित् असंख्यात होते हैं और कदाचित् अनंत होते हैं कहना चाहिये। .. ज्योतिषी और वैमानिक पर्याय में भूतकाल में अनंत कषाय समुद्घात हुए हैं और भविष्यकाल में यदि कषाय. समुद्घात होते हैं तो जघन्य असंख्यात और उत्कृष्ट अनंत समझने चाहिये। इसी प्रकार अप्कायिक यावत् मनुष्य के विषय में समझना चाहिये। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक के . असुरकुमार की तरह कहना किन्तु भविष्य काल की अपेक्षा स्व स्थान में एक से लगाकर अनंत तक कहना चाहिये। पर स्थान की अपेक्षा जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा है उसी प्रकार कह देना चाहिये। .. . इस प्रकार कषाय समुद्घात के विषय में चौबीस संख्यात वाले चौबीस दंडक कहना चाहिये यानी प्रत्येक दण्डक का चौबीस दण्डकों को लेकर कथन करने से कुल २४४२४-५७६ भंग होते हैं। मारणंतिय समुग्घाओ सट्ठाणे वि परट्ठाणे वि एगुत्तरियाए णेयब्बो जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवमेव चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। वेउब्विय समुग्घाओ जहा कसाय समुग्घाओ तहा णिरवसेसो भाणियव्वो, णवरं जस्स णत्थि तस्स ण वुच्चइ, एत्थ वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। तेयगसमुग्घाओ जहा मारणंतिय समुग्घाओ, णवरं जस्सऽत्थि एवं एए वि . चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा॥६९१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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