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________________ २८२ प्रज्ञापना सूत्र 中中中中HiNFileslancedelhHEMEILIPPERH EARNIFFAILY उत्तर - हे गौतम! एक भी नैरयिक के एक भी अतीत केवली समुद्घात नहीं हुआ है। प्रश्न - हे भगवन्! एक-एक नैरयिक के अनागत केवलीसमुद्घात कितने होते हैं? उत्तर - हे गौतम! किसी नैरयिक के अनागत केवली समुद्घात होता है किसी के नहीं होता। जिसके होता है उसके एक ही होता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि मनुष्य के अतीत केवली समुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है उसके एक ही होता है। मनुष्य के अतीत केवली समुद्घात की तरह अनागत केवली समुद्घात के विषय में भी समझ लेना चाहिये। विवेचन - एक-एक नैरयिक के अतीत काल में एक भी केवली समुद्घात हुआ नहीं क्योंकि केवली समुद्घात करने के बाद जीव अवश्य ही अंतर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है अतः यदि केवली समुद्घात हुआ हो तो जीव नरक में ही नहीं जाता परन्तु अभी नरक में है अतः एक भी नैरयिक के अतीत काल में केवली समुद्घात नहीं हुआ। नैरयिक के कितने केवली समुद्घात भविष्य में होने वाले हैं ? इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं - हे गौतम! किसी नैरयिक के भविष्य में केवली समुद्घात होता है और किसी के नहीं होता। जिसके केवली समुद्घात होता है उसके सर्वदा एक ही बार होता है, दो, तीन बार नहीं होता। जो मुक्तिपद प्राप्त करने के अयोग्य हैं अथवा योग्य होने पर भी जो केवली समुद्घात किये बिना मोक्ष में जाने वाले हैं उन जीवों की अपेक्षा कहा है कि केवली समुद्घात नहीं होता। केवली समुद्घात किये बिना मोक्ष में जाने वाले भी अनंत केवली होते हैं। कहा भी है - 'अगंतूण समुग्घायमणंता केवलि जिणा, जरमरण विप्पमुक्का सिद्धिंवरगई गया।' - समुद्घात प्राप्त हुए बिना अनन्त केवली जिन जरा और मरण से रहित होकर सिद्धि नाम की श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। नैरयिक की तरह वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों के विषय में समझ लेना चाहिये किन्तु मनुष्य की अपेक्षा अतीतकाल में किसी को केवली समुद्घात हुआ और किसी को नहीं हुआ। जिस मनुष्य को भूतकाल में केवली समुद्घात हुआ है उसे अवश्य एक ही बार हुआ है दो तीन बार नहीं क्योंकि एक ही समुद्घात से प्रायः सम्पूर्ण अघाती कर्मों का नाश होता है और भविष्य में भी किसी मनुष्य को केवली समुद्घात होगा और किसी को नहीं होगा। जिसको होगा उसको एक ही केवली समुद्घात होगा। णेरइया णं भंते! केवइया वेयणा समुग्घाया अतीता? गोयमा! अणंता। केवइया पुरेक्खडा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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