SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौतीसवां परिचारणा पद - परिचारणा द्वार =========****** देवों के न बहुत दूर और न अति नजदीक स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम रूपों को दिखलाती खड़ी रहती है तब वे देव उन अप्सराओं के साथ रूप परिचारणा करते हैं। शेष सारी वक्तव्यता उसी प्रकार यावत् वे बारबार परिणत होते हैं तक कहनी चाहिये । यद्यपि रूप परिचारणा वाले देव अपने अवधिज्ञान से वहीं पर रही हुई देवियों के रूप को देख सकते हैं। तथापि परिचारणा का साधन रूप नहीं होकर इन्द्रिय ही है। इसलिए देवियाँ उनके पास जाती है | अतः रूप परिचारणा में इन्द्रियों से रूप देखना समझना - अवधिज्ञान से नहीं । तत्थ णं जे ते सद्दपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ 'इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेत्तए' तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेडव्वियाई रुवाई विउव्वंति विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई समुदीरेमाणीओ समुदीरेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुज्जो - भुज्जो परिणमति । २६१ BEEEEE कठिन शब्दार्थ - उच्चावयाई उच्च-नीच न्यूनाधिक, समुदीरेमाणीओ उच्चारण करती हुई । भावार्थ - उनमें जो शब्दपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्द परिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों के द्वारा इस प्रकार मन में विचार करने पर उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं वहाँ देवियाँ पहुँच जाती हैं। पहुँच कर वे उन देवों के न अति दूर और न अति पास रुक कर सर्वोत्कृष्ट उच्च नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती रहती है। इस प्रकार वे देव उन अप्सराओं के साथ शब्द परिचारणा करते हैं । शेष कथन उसी प्रकार यावत् बारबार परिणत होते हैं । Jain Education International - - • विवेचन - पहले देवलोक की देवियाँ सातवें देवलोक तक तथा दूसरे देवलोक की देवियाँ आठवें देवलोक तक जाती है तथा नववें से बारहवें देवलोक में 'तत्थ गयाओ' स्वस्थान में ही देव परिचारणा (मनः परिचारणा करते हैं। दूसरे देवलोक की देवियाँ ऊपर के देवों के साथ मनः परिचारणा करे तो वह देवी अवधि से नहीं देख सकती है परन्तु दिव्यमति से देख सकती है । नमि विनमि के समान । परिचारणा की दृष्टि से देवी आठवें देवलोक से आगे नहीं जाती - परन्तु दूसरे किसी कार्यवशात् ( वहाँ तक विषय होने से ) १२ वें देवलोक तक जा सकती है। प्रज्ञापना पद २१ में पहले देवलोक के देव देवी का वहाँ जाकर समुद्घात करना बताया है। अतः देवियाँ १२ वें देवलोक तक जा सकती है। मनः परिचारणा से भी देवों के पुद्गल देवी के शरीर में पहुँच जाते हैं। पापड़ व आंख खराब होने के दृष्टान्त से समझ सकते हैं । अथवा नागरवेल का पान एक भी खराब हो जावे तो हजारों For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy