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________________ २६० *ekoekcoopco=================== प्रज्ञापना सूत्र =========PE ========ES: Jain Education International इट्ठत्ता कंतत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्गरूव जोव्वणगुणलावण्णत्ताए ते तासिं भुज्जो भुज्जो परिणमति ॥ ६७९ ॥ कठिन शब्दार्थ - सोहग्गरूवजोव्वणगुणलावण्णत्ताए सौभाग्य, रूप यौवन गुण लावण्य रूप से। ****====** - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या उन देवों के शुक्र- पुद्गल होते हैं ? उत्तर - हाँ गौतम ! उन देवों के शुक्र- पुद्गल होते हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप बार-बार परिणत होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे पुद्गल उनके लिए श्रोत्रेन्द्रिय रूप से, चक्षुरिन्द्रिय रूप से, घ्राणेन्द्रिय रूप से, रसनेन्द्रिय रूप से, स्पर्शनेन्द्रिय रूप से, इष्ट रूप से, कांत रूप से, मनोज्ञ रूप से, मनाम रूप से, सुभग रूप से, सौभाग्य रूप यौवन गुण लावण्य रूप से बार-बार परिणत होते हैं । विवेचन - शुक्र और वीर्य इन दोनों शब्दों के अर्थ में भिन्नता होती है आगमों में प्रायः शुक्र शब्द का ही प्रयोग मिलता है। देवता के शुक्र पुद्गल देवियों के शरीर में संक्रान्त होकर श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना और स्पर्शनेन्द्रिय रूप में इस तरह परिणत होते हैं कि वे इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, अतिशय मनोज्ञ तथा रूप, यौवन, लावण्य, गुणों से सुभग सभी को प्रिय लगती है । 1: तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं । तत्थ णं जे ते रूवपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ - 'इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेत्तए' तएणं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेडव्वियाइं रूवाइं विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताइं उरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउव्वियाइं रूवाइं उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीओ चिट्ठति, तएणं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति सेसं तं चेव जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति । भावार्थ - उनमें जो स्पर्श परिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है। जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी सम्पूर्ण रूप से कहना चाहिये । उनमें जो रूप परिचारक देव हैं उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूप परिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे देवियाँ उसी प्रकार यावत् उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया करती है। विकुर्वणा करके जहाँ वे देव होते हैं वहाँ आती है और आकर उन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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