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________________ २५८ *artattatoeskattatrataktetectetattatsetteerNEEDEDEHREENSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEntertakistarteleteleketstateketaliatatatekeke प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! पंचविहा परियारणा पण्णत्ता। तंजहा - कायपरियारणा, फासपरियारणा रूवपरियारणा, सहपरियारणा, मणपरियारणा। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-पंचविहा परियारणा पण्णत्ता। तंजहा - कायपरियारणा जाव मणपरियारणा? ___ गोयमा! भवणवइवाणमंतरजोइस सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा बंभलोयलंतगेसु देवा रूवपरियारगा महासुक्कसहस्सारेसु देवा सहपरियारगा, आणयपाणयआरणअच्चुएसु कप्पेसु देवा मणपरियारगा, गेवेज अणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणटेणं गोयमा! तंचेव जाव मणपरियारगा। कठिन शब्दार्थ - कायपरियारगा - काय परिचारक-काया से मैथुन-विषय भोग सेवन करने वाले, फासपरियारगा - स्पर्श परिचारक-स्पर्श से-आलिंगन मर्दन आदि से विषय सेवन करने वाले, रूवपरियारगा - रूप परिचारक-परस्पर विलास सहित दृष्टि विक्षेप, अंग प्रदर्शन आदि से विषय सेवन . करने वाले, सद्द परियारगा - शब्द परिचारक-मधुर आनंद जनक अनुपम उच्च नीच शब्द श्रवण द्वारा विषय सेवन करने वाले, मणपरियारगा - मन परिचारक-उच्चनीच मनोभावों से विषय सेवन करने वाले, अपरियारगा - अपरिचारक-विषय सेवन नहीं करने वाले। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की कही गई है? उत्तर - हे गौतम! परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है - १. काय परिचारणा २. स्पर्श परिचारणा ३. रूप परिचारणा ४. शब्द परिचारणा और ५. मन परिचारणा। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि परिचारणा पांच प्रकार की है यथाकायपरिचारणा यावत् मन परिचारणा? उत्तर - हे गौतम! भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म, ईशान कल्प के देव कायपरिचारक सनत्कुमार, माहेन्द्र कल्प के देव स्पर्श परिचारक, ब्रह्मलोक लान्तक कल्प के देव रूप परिचारक, महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देव शब्द परिचारक, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देव मन परिचारक तथा नवौवेयक और अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा गया है कि यावत् आनत आदि कल्पों के देव मन परिचारक होते हैं। विवेचन - भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और पहले दूसरे देवलोक के देव काया की परिचारणा वाले होते हैं। तीसरे, चौथे देवलोक के देव स्पर्श की परिचारणा वाले, पांचवें छठे देवलोक के देव रूप की परिचारणा वाले, सातवें आठवें देवलोक के देव शब्द की परिचारणा वाले, नववें से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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