________________
चौतीसवां परिचारणा पद - परिचारणा द्वार
२५७
अपरियारा, णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ - 'अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा, तं चेव जाव णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा॥६७७॥ ___ कठिन शब्दार्थ - सपरियारा - सपरिचार-मैथुनसेवी, अपरियारा - अपरिचार-मैथुन सेवन रहित, सदेवीया - देवी सहित, अदेवीया - देवी रहित।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या १. देव-देवियों सहित और सपरिचार-विषय सेवन करने वाले होते हैं अथवा २. देवियों सहित और अपरिचार होते हैं अथवा ३. देवी रहित और सपरिचार होते हैं अथवा ४ देवी सहित और अपरिचार होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! १. कई देव-देवियों सहित सपरिचार होते हैं २. कई, देव-देवियों रहित सपरिचार होते हैं ३. कई देव-देवियों रहित और अपरिचार होते हैं किन्तु ४ किन्तु कोई भी देव-देवियों सहित अपरिचार नहीं होते हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कई देव-देवियों सहित सपरिचार होते हैं यावत् देवियों सहित अपरिचार नहीं होते हैं ? .. उत्तर - हे गौतम! भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म तथा ईशान कल्प के देव देवियों सहित और सपरिचार-परिचार सहित होते हैं। सनत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में देव-देवियों रहित सपरिचार होते हैं। नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानवासी देव-देवी रहित और अपरिचार-परिचार रहित होते हैं परन्तु कोई भी देव-देवियाँ सहित और परिचार रहित नहीं होते। इस कारण से हे गौतम! इस प्रकार कहा जाता है कि कितनेक (कई) देवी सहित और सपरिचार होते हैं इत्यादि उसी प्रकार कहना यावत् देव-देवी सहित और परिचार रहित नहीं होते हैं। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में परिचारणा में देवों के चार भंग किये हैं। भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और पहले दूसरे देवलोक के देव सदेवी और सपरिचार (परिचारणा सहित) होते हैं। तीसरे देवलोक से बारहवें देवलोक तक के देव अदेवी (देवी रहित) सपरिचार होते हैं। नवग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देव अदेवी अपरिचार होते हैं किन्तु 'सदेवी अपरिचार' का भंग देवों में नहीं पाता है। यहाँ परिचारणा में देवों के ४ भंग किये हैं वहाँ 'देव स्थान' समझना चाहिये। 'देवों के किसी के होवे या नहीं' यह नहीं कह सकते हैं। क्योंकि विरति का परिणाम नहीं होने से तथा देवों में वैसी ही वृत्ति होने से प्रायः परिचारणा वाले ही होते हैं। कोई भी देवस्थान 'सदेवी अपरिचार' नहीं होते हैं।
कइविहा णं भंते! परियारणा पण्णत्ता?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org