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________________ तेतीसवां अवधि पद - देश सर्व अवधिद्वार २४५ REEEEEEEkaktarcticketerEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE * 种种种种 विवेचन - जो अवधिज्ञान निरन्तर अवधिज्ञानी के साथ रहता है और सभी दिशाओं में अपने जानने योग्य क्षेत्र को जानता है उसे आभ्यंतर अवधिज्ञान कहते हैं। जो अवधिज्ञान सदा अवधिज्ञानी के साथ नहीं रहता, बीच-बीच में विच्छिन्न हो जाता है वह बाह्य अवधिज्ञान है। आभ्यंतर अवधिज्ञान जन्म से साथ आता है और बाह्य अवधिज्ञान पीछे से उत्पन्न होता है। नैरयिक, भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों में आभ्यंतर अवधिज्ञान होता है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय में बाह्य अवधिज्ञान होता है। मनुष्य में आभ्यंतर और बाह्य दोनों अवधिज्ञान होते हैं। ६-७ देश सर्व अवधिद्वार णेरइया णं भंते! किं देसोही सव्वोही? गोयमा! देसोही, णो सव्वोही, एवं जाव थणियकुमारा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! देसोही, णों सव्वोही। मणूसाणं पुच्छा। गोयमा! देसोही वि सव्वोही वि। वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा णेरइयाणं॥६७२॥ कठिन शब्दार्थ- देसोही- देशावधि, सव्वोही- सर्वावधि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों को देशावधि होता है या सर्वावधि होता है ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं। इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना चाहिये। प्रश्न - हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवधिज्ञान देश अवधि होता है या सर्वावधि? उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवधिज्ञान देशावधि होता है सर्वावधि नहीं। प्रश्न - मनुष्यों के अवधिज्ञान विषयक पृच्छा। उत्तर - हे गौतम! मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि भी होता है और सर्वावधि भी होता है वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान समझनी चाहिये। विवेचन - परम अवधिज्ञान से छोटा अवधिज्ञान, देशावधि कहलाता है और परम अवधिज्ञान सर्व अवधि कहलाता है। नैरयिकों, चारों प्रकार के देवों (भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक) और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में देश अवधि होता है, सर्व अवधि नहीं। मनुष्यों में देश अवधि भी होता है और सर्व अवधि भी होता है क्योंकि उनमें परम अवधिज्ञान भी संभव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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