________________
तीसवां पश्यत्ता पद
२२३ HTTHEHENNHNNHHHHHHNNHENRENEF格林林林林林
मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान है। शेष सभी यावत् वैमानिक तक के जीवों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिये।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में किन जीवों में कौन-कौन-सी पश्यत्ता पाई जाती है। इसका निरूपण किया गया है। समुच्चय जीव में साकार पश्यत्ता के छहों भेद और अनाकार पश्यत्ता के तीनों भेद पाये जाते हैं। नैरयिक, देव और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में साकार पश्यत्ता के चार भेद-श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान पाये जाते हैं और अनाकार पश्यत्ता के दो भेद चक्षु दर्शन और अवधिदर्शन पाये जाते हैं। पांच स्थावर में साकार पश्यत्ता का एक भेद श्रुत अज्ञान पाता है। बेइन्द्रिय और तेइन्द्रिय जीवों में साकार पश्यत्ता के दो भेद - श्रुत ज्ञान और श्रुत अज्ञान पाते हैं। चउरिन्द्रिय जीवों में साकार पश्यत्ता के दो भेद श्रुतज्ञान, श्रुतअज्ञान और अनाकार पश्यत्ता का एक भेद चक्षुदर्शन पाता है। मनुष्य में समुच्चय जीव की तरह कह देना चाहिये।
केवली णं भंते! इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेऊहिं उवमाहिं दिटुंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ?
गोयमा! णो इणद्वे समढे। . ' से केणट्ठणं भंते! एवं वुच्चइ-'केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं० जं समयं जाणइ णो तं समयं पासइ, जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ?
गोयमा! सागारे से णाणे भवइ, अणागारे से दंसणे भवइ, से तेणटेणं जाव णो तं समयं जाणइ, एवं जाव अहेसत्तमं। एवं सोहम्मकप्पं जाव अच्चुयं, गेविजगविमाणा, अणुत्तरविमाणा, ईसिप्पन्भारं पुढविं, परमाणुपोग्गलं दुपएसियं खधं जाव अणंतपएसियं
खंधं।
कठिन शब्दार्थ - आगारेहिं - आकार-प्रकारों से, हेऊहिं - हेतुओं से, उवमाहिं - उपमाओं से, दिटुंतेहिं - दृष्टान्तों से, वण्णेहिं - वर्णों से, संठाणेहिं - संस्थानों-आकारों से, पमाणेहिं - प्रमाणों से, पडोयारेहिं - प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्ण रूप से चारों ओर से व्याप्त करने वाले पदार्थों से, दुपएसियं - द्वि प्रदेशिक।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं उस समय देखते हैं ? और जिस समय देखते हैं उस समय जानते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org