SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसवां पश्यत्ता पद जीव साकार पश्यत्ता वाला है ? इत्यादि) की गई है । अन्यतीर्थिक लोग - गुण व गुणी को एकान्त रूप में भिन्न या अभिन्न मानते हैं। उनकी मान्यता का खण्डन (निराकरण) करने के लिए ही यह दूसरी बार पृच्छा की है तथा यह बात सिद्ध की है कि - 'गुण और गुणी एकान्त रूप से भिन्न या अभिन्न नहीं होकर कदाचित् भिन्न कदाचित् अभिन्न होते हैं। ' रइयाणं भंते! किं सागारपस्सी, अणागारपस्सी ? गोयमा ! एवं चेव, णवरं सागारपासणयाए मणपज्जवणाणी केवलणाणी ज वुच्चइ, अणागारपासणयाए केवलदंसणं णत्थि, एवं जाव थणियकुमारा । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव साकार पश्यत्ता वाले हैं या अनाकार पश्यत्ता वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम! इसी प्रकार समझना चाहिये किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें साकार पश्यत्ता के रूप में मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी नहीं कहना चाहिये तथा अनाकार पश्यत्ता में केवलदर्शन नहीं है। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार तक समझ लेना चाहिये । विवेचन नैरयिक जीव साकार पश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकार पश्यत्ता वाले भी होते हैं किन्तु वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते इसलिए उनमें मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान रूप साकार पश्यत्ता का एवं केवलदर्शन रूप अनाकार पश्यत्ता का निषेध किया है। २२१ पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया सागारपस्सी, णो अणागारपस्सी । सेकेणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ० ? गोयमा ! पुढविकाइयाणं एगा सुयअण्णाणसागारपासणया पण्णत्ता, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वच्चइ, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव साकार पश्यत्ता वाले हैं या अनाकार पश्यत्ता वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव साकार पश्यत्ता वाले हैं, अनाकार पश्यत्ता वाले नहीं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि पृथ्वीकायिक जीव साकार पश्यत्ता वाले हैं अनाकार पश्यत्ता वाले नहीं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों में एक मात्र श्रुतअज्ञान साकार पश्यत्ता कही गई है इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है पृथ्वीकायिक जीव साकार पश्यत्ता वाले हैं, अनाकार पश्यत्ता वाले नहीं । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक समझना चाहिये । बेइंदियाणं पुच्छा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy