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________________ अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - मनोभक्षी आहार द्वार . १८३ NIKIPEI वाले 'मनोभक्षी आहारी' कहलाते हैं। मनोभक्षी आहारी में ऐसी शक्ति होती है कि वे मन से अपने शरीर को पुष्ट करने वाले पुद्गलों का आहार करते हैं और आहार करने के पश्चात् वे तृप्ति रूप परम संतोष का अनुभव करते हैं। नैरयिक ओजाहारी होते हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तावस्था में ओज आहार संभव है वे मनोभक्षी आहारी नहीं होते क्योंकि प्रतिकूल - असातावेदनीय कर्म के उदय के कारण तथाप्रकार के मन से इष्ट आहार ग्रहण करने रूप शक्ति का उनमें अभाव होता है। नैरयिकों की तरह ही पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक जितने भी औदारिक शरीरधारी जीव हैं वे सभी ओज आहार वाले होते हैं, मनोभक्षी आहारी नहीं होते। असुरकुमार से लगाकर वैमानिक तक के सभी देव ओज आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी आहारी भी होते हैं। जैसे शीत पुद्गल शीत योनि वाले प्राणी के लिए सुखरूप होते हैं और उष्ण पुद्गल उष्ण योनि वाले प्राणी के लिए सुखरूप होते हैं उसी प्रकार देवों में भी मन से आहार रूप ग्रहण किये हुए पुद्गल उनकी तृप्ति के लिए और उनके परम संतोष के लिए होते हैं जिसके कारण उनकी आहार की इच्छा निवृत्त होती है। - ओज आहार आदि के विभाग को दर्शाने वाली सूत्रकृतांग सूत्र २ अध्ययन ३ नियुक्ति की गाथाएं इस प्रकार है सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ णायव्वो॥१॥. - ओज आहार शरीर के द्वारा होता है रोम आहार त्वचा के द्वारा होता है और प्रक्षेपाहार कवल करके किया जाने वाला होता है ॥१॥ ओयाहारा जीवा सव्वे अपजत्तया मुणेयव्या। पजत्तगा य लोमे पक्खेवे होंति भइयव्वा॥२॥ - सभी अपर्याप्त जीव ओजआहारी होते हैं पर्याप्त जीव लोमाहारी और प्रक्षेपाहारी भजना से होते हैं। यानी कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं ॥२॥ एगिदियदेवाणं णेरइयाणं णत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्याण पक्खेवा॥३॥ - एकेन्द्रिय, नैरयिक और देव प्रक्षेपाहारी नहीं होते जबकि शेष जीव प्रक्षेपाहारी होते हैं ॥३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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