SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद - प्रथम उद्देशक एकेन्द्रिय शरीर आदि द्वार विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं एगतीसाए, उक्कोसेणं तेत्तीसाए । - - Jain Education International सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज़इ ॥ ६४७ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? उत्तर - हे गौतम! उन्हें जघन्य इकत्तीस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सर्वार्थसिद्ध के देवों को कितने समय में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध के देवों को अजघन्य - अनुत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । १७९ विवेचन प्रस्तु सूत्र में देवों को कितने काल से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है इस विषय में "स्पष्टीकरण किया गया है। देवों में दस हजार वर्ष की स्थिति वालों के चतुर्थभक्त (एक अहोरात्रि) से, पल्योपम की स्थिति वालों के पृथक्त्व दिवस ( दो दिन से अनेक दिन) से एवं सागरोपम की स्थिति वालों के एक हजार वर्ष झाझेरी (कुछ अधिक) से आभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । यानी जिस देवलोक की जितने सागरोपम की स्थिति है उतने ही हजार वर्षों से आहार की इच्छा होती है। जैसे चार अनुत्तर विमान के देवों की जघन्य स्थिति ३१ सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है तो उन देवों को जघन्य इकत्तीस हजार वर्षों में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। ९. एकेन्द्रिय शरीर आदि द्वार रइया णं भंते! किं एगिंदियसरीराई आहारेंति जाव पंचिंदियसरीराई आहारेंति ? गोमा ! पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिंदियसरीराइं पि आहारेंति जाव पंचिंदिय०, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा पंचिंदियसरीराई आहारेंति, एवं जाव थणियकुमारा । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy