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________________ १७२ प्रज्ञापना सूत्र बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गला आहारत्ताए - पुच्छा? गोयमा! जिभिदियफासिंदियवेमायत्ताए तेसिं भुजो-भुजो परिणमंति। एवं जाव चरिदिया, णवरं णेगाइं च ण भागसहस्साइं अणाघाइजमाणाई अणासाइजमाणाई अपासाइजमाणाई विद्धंसमागच्छंति। एएसि णं भंते! पोग्गलाणं अणाघाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइजमाणा, अणासाइजमाणा अणंतगुणा, अफासाइजमाणा अणंतगणा॥६४६॥ कठिन शब्दार्थ - अणाघाइजमाणाणं - अनाघ्रायमाण-बिना सूंघे हुए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुन:पुनः परिणत होते हैं ? इत्यादि पृच्छा। उत्तर - हे गौतम ! वे पुद्गल रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की.विमात्रा के रूप में पुनः पुन: परिणत होते हैं। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय तक कहना चाहिये। विशेषता यह है कि उनके अनेक हजार भाग बिना सूंघे हुए, बिना स्वाद लिये हुए या बिना स्पर्श किये हुए ही नष्ट हो जाते हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! इन बिना सूंघे हुए, बिना स्वाद लिये हुए और बिना स्पर्श किये हुए पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषादिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पुद्गल बिना सूंघे हुए हैं, उससे बिना स्वाद लिए हुए पुद्गल अनंत गुणा हैं और उनसे भी बिना स्पर्श किये हुए पुद्गल अनन्त गुणा हैं। . विवेचन - बेइन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करता है उनको जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की विमात्रा-विषम मात्रा से-विविध रूप में परिणमता है। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय के विषय में समझना चाहिये। क्योंकि इनकी समान वक्तव्यता है। इसमें जो विशेषता है वह बताते हुए कहते हैं - जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते है उन पुद्गलों के एक असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनेक हजार भाग-बहुत असंख्याता भाग सूंघे बिना, स्वाद लिये बिना और स्पर्श किये बिना नाश को प्राप्त होते हैं वह भी यथासंभव अतिस्थूलपन से या अतिसूक्ष्मपन से जानना चाहिये। इसकी अल्प बहुत्व के विषय में कहा गया है कि एक स्पर्श योग्य भाग के अनंतवें भाग आस्वाद के योग्य और उसका भी अनंतवां भाग सूघने के योग्य होता है। तेइंदिया णं भंते! जे पोग्गला-पुच्छा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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