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________________ अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - आहारार्थी आदि द्वार। १७१ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं या सभी का आहार नहीं करते हैं ? ... उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार हैलोमाहार और प्रक्षेपाहार। वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सभी का समग्र रूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं और अनेक हजार भाग स्पर्श किये बिना और स्वाद लिये बिना विध्वंस (नाश) को प्राप्त हो जाते हैं। . _ विवेचन - बेइन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है - १. लोमाहार - रोमों द्वारा किया जाने वाला आहार लोमाहार कहलाता है २. प्रक्षेपाहार - कवलाहार-मुख में डाल कर या कौर के रूप में मुख द्वारा किया जाने वाला आहार प्रक्षेपाहार है। सामान्य रूप से वर्षा आदि काल में पुद्गलों का शरीर में प्रवेश हो जाता है जिसका अनुमान मूत्र आदि से लगाया जा सकता है, वह लोमाहार है। बेइन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप में जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उन सभी का पूर्ण रूप से आहार करते हैं क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है तथा जिन पुद्गलों को बेइन्द्रिय जीव प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार होता है उनमें से बहुत से आहार भाग बिना स्पर्श “ किये हुए और बिना स्वाद किये यों ही नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उनमें से कितनेक अति स्थूल एवं कितनेक अति सूक्ष्म होने के कारण यथा संभव नाश को प्राप्त होते हैं। एएसि णं भंते! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? - मोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन स्वाद नहीं लिये हुए और स्पर्श नहीं किये हुए पुद्गलों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पुद्गल स्वाद नहीं लिये जाने वाले हैं और उनसे अनंतगुणा पुद्गल स्पर्श नहीं किये जाने वाले हैं। विवेचन - बेइन्द्रिय द्वारा प्रक्षेपाहार रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों में सबसे कम पुद्गल बिना स्वाद लिये होते हैं क्योंकि आस्वादन योग्य पुद्गलों में से कितनेक आस्वाद को प्राप्त होते हैं और कितनेक आस्वाद को प्राप्त नहीं होते इसलिए अनास्वाद्यमान पुद्गल थोड़े हैं। उससे अस्पृश्यमान पुद्गल अनन्तगुणा हैं। आशय यह है कि एक एक स्पर्श योग्य भाग में अनन्तवां भाग आस्वाद के योग्य होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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