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________________ अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - आहारार्थी आदि द्वार १६३ PRENERArkesta तित्तकडुयाइं, फासओ कक्खडगरुयसीयलुक्खाई, तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विपरिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाइडत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारं आहारैति। कठिन शब्दार्थ - ओसण्णं कारणं - ओसन्न कारण-बाहुल्यकारण (प्रधानता की अपेक्षा), विपरिणामइत्ता - विपरिणमन (परिवर्तन) कर के, परिपीलइत्ता - परिपीडन करके, परिसाडइत्ता - परिशाटन करके, परिविद्धंसइत्ता - परिविध्वंस करके, उप्पाइत्ता - उत्पन्न करके, आयसरीरखेत्तोगाढेअपने शरीर क्षेत्र में अवगाहन किये हुए, सव्वप्पणयाए - सर्वात्मा से-सर्व आत्म-प्रदेशों से। भावार्थ - बाहुल्य कारण की अपेक्षा से वर्ण से काले व नीले वर्ण वाले, गन्ध से दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त (तीखे), कटुक (कडुए) रस वाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु (भारी), शीत (ठंडे) और रूक्ष पुद्गल द्रव्यों का आहार करते हैं, उनके पूर्व के वर्ण गुण, गन्ध गुण, रस गुण और स्पर्श गुण का विपरिणमन (परिवर्तन) करके, परिपीडिन करके, परिशाटन (नाश) करके और परिविध्वंस करके अन्य अपूर्व वर्ण गुण, गन्ध गुण, रस गुण और स्पर्श गुण को उत्पन्न करके अपने शरीर रूप क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों का सर्वात्मा से आहार करते हैं। - विवेचन - नैरयिक अधिकतर अशुभ वर्ण (काले, नीले) अशुभ गंध (दुरभिगंध) अशुभ रस (तीखे कड़वे) और अशुभ स्पर्श (कर्कश, गुरू, शीत, रूक्ष) वाले पुद्गलों का आहार लेते हैं। उन ग्रहण किये हुए पुद्गलों के पुराने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का नाश करके दूसरे अपूर्व अशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श उत्पन्न करके फिर शरीर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों का सभी आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं। यहाँ 'ओसण्ण'-बहुलता सूचक शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका आशय यह है कि अशुभ विपाक वाले मिथ्यादृष्टि काले (कृष्ण) आदि वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं किन्तु भविष्य में तीर्थंकर आदि होने वाले नैरयिक जीव ऐसे पुद्गलों का आहार नहीं करते हैं इसलिए 'ओसपण' ऐसा कहा है। यह चौथा द्वार हुआ। णेरइया णं भंते! सव्वओ आहारेंति, सव्वओ परिणामेंति, सव्वओ ऊससंति, सव्वओ णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति, अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति, आहच्च परिणामेंति, आहच्च ऊससंति, आहच्च णीससंति? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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