________________
१६२
प्रज्ञापना सूत्र
AIRISEMA-林
___ जाइं० फासओ कक्खडाइं आहारेति ताई किं एगगुणकक्खडाइं आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाइं आहारेंति?
गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारेंति, एवं अट्ट वि फासा भाणियव्वा.जाव अणंतगुणलुक्खाई पि आहारेंति।
भावार्थ - जो जीव भाव से स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे एक स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार नहीं करते हैं, न दो स्पर्श वाले और न तीन स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते, अपितु चार स्पर्श वाले यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। विधान मार्गणा की अपेक्षा वे कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! वे जिन कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अनन्तगुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! वे एक गुण कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् अनन्त गुण कर्कश पुद्गलों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार आठों ही स्पर्शों के विषय में यावत् 'अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं', तक कह देना चाहिए।
जाइं भंते! अणंतगुणलुक्खाइं आहारेंति ताइं किं पुट्ठाइं आहारेंति अपुढाई आहारेंति?
गोयमा! पुढाई आहारेंति, णो अपुढाई आहारेंति, जहा भासुद्देसए जाव णियमा छहिसिं आहारैति।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं, अस्पृष्ट पुद्गलों का नहीं। जिस प्रकार भाषा-उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यावत् वे नियम से छहों दिशाओं से आहार करते हैं।
विवेचन - नैरयिक वर्ण की अपेक्षा पांचों वर्ण वाले, गंध की अपेक्षा दोनों गंध वाले, रस की अपेक्षा पांचों रस वाले और स्पर्श की अपेक्षा आठों स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। वर्ण से काले वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं तो एक गुण काले वर्ण के, दो गुण काले वर्ण के, तीन गुण काले वर्ण के यावत् दस गुण काले वर्ण के, संख्यात गुण काले वर्ण के, असंख्यातगुण काले वर्ण के
और अनंतगुण काले वर्ण के पुद्गलों का आहार करते हैं। काले वर्ण की तरह शेष चार वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श का वर्णन भी कह देना चाहिये। नैरयिक आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट द्रव्यों का नियमा छह दिशाओं से आहार करते हैं।
ओसण्णं कारणं पडुच्च वण्णओ कालणीलाइं, गंधओ दुब्भिगंधाइं, रसओ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org