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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एव उत्तर प्रकृतियाँ १२७ सम्मत्तसम्मामिच्छत्त आहारग सरीरणामाए तित्थगरणामाए ण किंचि वि बंधंति। अवसिटुं जहा बेइंदियाणं, णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स ते सागरोवमसहस्सेणं सह भाणियव्वा सव्वेसिं आणुपुबीए जाव अंतराइयस्स॥६३०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर नाम कर्म संबंधी पृच्छा (प्रश्न)? उत्तर - हे गौतम! असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वैक्रिय शरीर नाम कर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम हजार सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट परिपूर्ण हजार सागरोपम के है भाग का बन्ध करते हैं। - सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, आहारक शरीर नाम कर्म और तीर्थकरनाम कर्म का असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव बन्ध करते ही नहीं हैं। शेष सभी कर्म प्रकृतियों का बन्धकाल बेइन्द्रिय के समान समझना जाहिये। विशेषता यह है कि जिसकी सागरोपम के जितने भाग की स्थिति कही है उसकी हजार गुणा सागरोपम सहित स्थिति कहनी चाहिये। इसी प्रकार सभी कर्मप्रकृतियों की अनुक्रम से स्थिति यावत् अंतराय कर्म तक कह देनी चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असंज्ञा पंचेन्द्रिय जीवों के बंध काल की प्ररूपणा की गई है। बेइन्द्रिय जीवों की तरह ही असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति का वर्णन है किन्तु विशेषता यह है कि जिस कर्म की जितनी स्थिति है उससे हजार गुणा सागरोपम की स्थिति कह देना चाहिए। सण्णी णं भंते! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म की कितनी स्थिति बांधते हैं? उत्तर - हे गौतम! संज्ञी पंचेन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम का बन्ध करते हैं। अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। सण्णी णं भंते! पंचेंदिया णिहापंचगस्स किं बंधंति? गोयमा! जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा। दसणचउक्कस्स जहा णाणावरणिजस्स। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् । संजीपंचेन्द्रिय जीव पांच निद्राओं की कितनी स्थिति बांधते हैं? उत्तर- हे गौतम। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव निद्रा पंचक कर्म की जघन्य अन्त:कोडाकोडी सागरोपम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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