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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ १२३ ३. भाग का एवं उत्कृष्ट परिपूर्ण स्थिति का बंध करते हैं। इसी प्रकार निद्रापंचक की स्थिति के विषय में समझना चाहिये। इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति का कथन किया गया है उसी प्रकार बेइन्द्रिय जीवों की बंध स्थिति का कथन करना चाहिये। परन्तु विशेषता यह है कि पच्चीस गुणा सागरोपम पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून बंध कहना चाहिये। शेष सभी पूर्वोक्तानुसार पूर्ण स्थिति का बंध करते हैं। जिन कर्म प्रकृतियों को एकेन्द्रिय जीव नहीं बांधते उन प्रकृतियों को ये बेइन्द्रिय भी नहीं बांधते हैं। बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स० किं बंधंति? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणवीसं पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय जीव मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं? . उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्ट वही स्थिति को परिपूर्ण बांधते हैं। तिरिक्खजोणियाउयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडिं चउहिं वासेहिं अहियं बंधति। एवं मणुयाउयस्स वि। सेसं जहा एगिदियाणं जहा अंतराइयस्स॥६२७॥ भावार्थ - बेइन्द्रिय जीव तिर्यंचायु को जघन्य अन्तर्मुहूर्त का उत्कृष्ट चार वर्ष अधिक करोड़ पूर्व वर्ष का बंध करते हैं। इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी करना चाहिए। शेष सारा वर्णन यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के समान समझना चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बेइन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का बन्ध कितने काल का करते हैं इसका वर्णन किया गया है। .. तेइंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स० किं बंधति? . गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जइ भागा तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणियव्वा। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! तेइन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का कितने काल का बंध करते हैं? उत्तर - हे गौतम! तेइन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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