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________________ १२२. प्रज्ञापना सूत्र उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। जत्थ णं जहण्णेणं एगो वा दिवड्डो वा सत्तभागो तत्थ जहण्णेणं तं चेव भाणियव्वं उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। .. भावार्थ - इसी प्रकार जहाँ सागरोपम के दो सप्तमांश ( भाग) तीन सप्तमांश ( भाग) चार सप्तमांश ( भाग) अथवा अठावीसवें भाग की स्थिति होती है वहाँ उतने भाग जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहना चाहिए और जहाँ जघन्य से एक सप्तमांश ( भाग) या डेढ सप्तमांश (३" भाग) की स्थिति हो वहाँ उतने ही भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहना चाहिए और उत्कृष्ट उतने ही भाग की परिपूर्ण स्थिति बांधते हैं, इस प्रकार समझना चाहिये। जसोकित्तिउच्चागोयाणं जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। भावार्थ - यश:कीर्ति और उच्चगोत्र कर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के एक सप्तमांश ( भाग) और उत्कृष्ट उतनी ही परिपूर्ण स्थिति बांधते हैं। अंतराइयस्सणं भंते! पुच्छा? गोयमा!जहाणाणावरणिजस्सजाव उक्कोसेणंतेचेवपडिपुण्णे बंधंति॥६२६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अन्तराय कर्म का बन्ध कितने काल.का करते हैं? उत्तर - हे गौतम! अन्तराय कर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीय कर्म के समान समझ लेना चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध काल की प्ररूपणा की गई है। बेइंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणवीसाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति। एवं णिहापंचगस्सवि। एवं जहा एगिदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं, णवरं सागरोवमपणवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।जत्थ एगिदिया ण बंधति तत्थ एए वि ण बंधंति। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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